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पार्श्वप्रभुकी ओर
४४५ पड़ जावे तो हम लोग अन्य धर्मावलम्बियोको मन्दिरसे ठहरना तो दूर रहा वैठने तक न देवेंगे। यह वात जैनधर्मके सर्वथा प्रतिकूल है। अरे! जैनधर्म तो उन जीवोंकी भी रक्षाका उपदेश देता है जो इन्दियोंके गोचर नहीं। फिर चलते फिरते मनुष्योंकी तो बात. ही क्या है ?
प्रात काल यहाँसे ५।। मील चलकर १ शिवालयमे फिर ठहर. गये । यहांके पुजारीने भी बड़े सत्कारसे रक्खा। यह स्थान अति रमणीय है। अक्षय तृतीयाके दिन प्रातःकाले २ मील चलकर ससराम आ गये। यहाँ एक सुन्दर धर्मशाला है। उसीमे ठहर गये । गमींके प्रकोपके कारण स्वाध्यायमें मन नहीं लगा तथा तृषाके कारण भी अशान्ति रही परन्तु मैंने देखा कि पानी पीनेवाले हमसे भी अधिक प्रशाम्त रहते हैं अतः पानी ही शान्तिका कारण नहीं. है । सायंकाल यहासे २ मील चलकर एक कूपपर ठहर गये। यह कूप एक तेलिनने बनवाया है। उसपर एक आदमी रहता है जो दिनभर पशुओं तथा मनुष्योंको पानी पिलाता रहता है। यहाँसे प्रातः ४ मील चलकर एक पानीका स्थान था वहीं ठहर गये। वहींपर. भोजन हुआ। ३ बजे यहाँसे चलकर डालमियाँनगर आ गये। लोगोंने अच्छा स्वागत किया। स्थान रम्य है। यह वही स्थान है जहाँ पर श्री स्वर्गीय सूरिसागरजी महाराजने अन्तिम जीवनका उत्सर्ग किया था। आप बड़े तपस्वी थे। तेरापन्थ दिगम्बर जैन धर्मके अनुयायी थे। आपका ज्ञान विशाल था । आपके द्वारा संयसप्रकाश आदि अनेक शास्त्रोंकी रचना हुई है। आपका स्वर्गवास गत वर्पके श्रावण वदी ८ को यहीं हुआ था। आप ६ घंटा समाधि मे रत रहे । १२ बजे रात्रिको आपने देहोत्सर्ग किया। आपकी दिगम्बर पद्यासन मुद्रा देह त्यागके बाद ज्यों की त्यों रही। यहाँ आते ही मुझे आपका नाम स्मृत हो उठा और मनमे अपने प्रति