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पाचप्रभुकी ओर
४४३ होता । अगले दिन ५ मील चलकर सैय्यदराजा ग्राममें आ गये। एक अग्रवालकी धर्मशालामे रह गये। धर्मशालाका मैनेजर धार्मिक था । उसने कहा कि भगवद्भजनमे उपयोग लगे ऐसी प्रकृति किस तरह प्राप्त हो सकती है ? हमने यही उत्तर दिया कि उसका उपाय तो विपयोंसे चित्तको रोकना है। उसका दूसरा प्रश्न था कि प्रत्येक प्राणीको भगवद्भजनकी इच्छा क्यों रहती है ? इसके उत्तरमें हमने कहा कि भगवान् पूर्ण है, वीतराग है और हितोपदेशी है तथा हम परमार्थसे अनेक प्रकारके अपराध करते हैं एवं निरन्तर पतित मार्गमे जाते हैं अतः एतन्निवारणाय किसी महापुरुषकी शरणमे ही जाना हमारे लिये श्रेयोमार्ग है । यहाँसे चलकर कर्मनाशा स्टेशनके समीप ठहर गये और दूसरे दिन प्रातः ६ मील चलकर दुर्गावती नदीके तट पर डॉक बॅगलामें निवास किया। यहीं पर आहार हुआ। यहाँसे ३ फलांग पर एक स्कूल था। उसमे सानन्द निवास किया । अध्यापकवर्ग शिष्ट था। एक बालकने, प्रश्न किया-आप कौन हैं ? मैंने उत्तर दिया-जैन हैं। उसने फिर जिज्ञासा भावसे पूछा-जैन किसे कहते हैं ? मैंने कहा-जो जीवमात्र पर दया करे। उसने फिर प्रश्न किया-जीवमात्र पर दया करनेसे संसारकी व्यवस्था किस प्रकार चलेगी ? मैंने कहाअच्छी तरह चलेगी। उसने कहा अच्छी किस तरह ? मैंने कहादयाका यथोचित विभाग करनेसे सब व्यवस्था चल सकती है। अपने अपने पद और अपनी अपनी शक्तिके अनुसार जीवदयाका पालन करनेसे कहीं कोई व्यवस्था भग्न नहीं होती। उत्तर सुनकर बालक प्रसन्न हुआ।
प्रातः ५ मील चलकर एक बाबाकी कुटियामे फिर विनाम किया। बाबाने प्रेमसे स्थान दिया। यहां गयासे सोनू वाचू श्रा गये। दूसरे दिन प्रातःकाल ५ मील चलकर १ बंगलामे ठहर गये ।