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________________ विविध विद्वानोंका समागम २६१ आपने कुल काव्यका हिन्दी तथा संस्कृत अनुवाद किया है । व्युत्पन्न विद्वान है परन्तु कर्मोदयकी विपरीततासे नेत्रविहीन हो गये । 1 भाद्रपद कृष्ण १४ स० २००८ को पण्डित शीतलप्रसाद जी शाहपुरवालोंका व्याख्यान हुआ | आपका प्रवचन बहुत ही मनोहर था । आपने जनताके हृदयमें समीचीन रूपसे धर्मकी भावना भर दी । प्रत्येक मनुष्य के चित्तमे धर्मका वास्तविक परिचय हो गया । आपने बताया कि धर्मं कोई ऐसी वस्तु नहीं जो कहींसे भिक्षामें मिल जाय । हम स्वयं इतने कातर हो गये हैं कि उसके होते हुए भी परसे याचना करते हुए लज्जित नहीं होते । धर्मका घातक अधर्म है । अधर्मके सद्भावसे धर्मका विकाश नहीं हो सकता । जैसे अन्धकारके प्रभाव प्रकाश नहीं क्योंकि अन्धकार और प्रकाश ये दोनों परस्पर विरोधी हैं किन्तु जब रात्रिका अन्त आता है तथा सूर्योदय होता है तब अन्धकार पर्याय स्वयमेव विलय जाती है । इसी प्रकार हमारी प्रवृत्ति अनादि कालसे परमें निजत्व कल्पना कर मिथ्याज्ञानका पात्र वन रही है और इसीके द्वारा अन्य पदार्थों को निज मान आत्मचारित्रको क्रोध मान माया लोभरूप बना रही है । निरन्तर इन्हीं में तन्मय हो रही है । इनमें तन्मय होनेसे आत्मीय क्षमा, मार्दव, आर्जव और शौचका घात कर रही हैं। जब क्षमादिक पर्यायोंका उदय नहीं तब आप ही बताओ शान्तिरसका आस्वाद कैसे मिले | भाद्रपद कृष्णण ३० सं० २००८ को पं० मुन्नालालजी समगौरया सागरने शास्त्र प्रवचन किया। भक्तिपर सम्यक् विवेचन किया । परमार्थसे विचार किया जाय तो भक्ति के ही आत्माआत्मगुणोंके विकासमें कारण होती है । गुणोंमे अनुराग होना भक्तिका लक्षण है।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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