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________________ २१२ मेरी जीवन गाथा __ भाद्रपद शुक्ला १ को श्री पं० शीलचन्द्रजी साढूमलका प्रवचन हुआ। आप प्रकृत्या शान्त तथा सुबोध विद्वान् हैं। आपने सम्यक् प्रकार यह सिद्ध क्यिा कि मनुष्यको भावना निमल बनाना चाहिये । भावना ही भवनाशिनी है। अनन्त संसारका कारण असद्भावना और अनन्त संसारका विध्वंस करनेवाली सद्भावना है । जो आत्माकी यथार्थतासे अनभिज्ञ हैं वे श्रात्मस्वल्पसे वञ्चित हैं। परमें निजत्रका व्यामोह कर निरन्तर दुःखके पात्र रहते हैं। दुःखका लक्षण आकुलता है। श्राकुलवा जहाँ होती है वहाँ अशान्ति अवश्य रहती है। श्रात्मा भीतरसे शान्ति चाहता है परन्तु शान्तिका अनुभव तभी हो सकता है जब किसी प्रकारकी व्यग्रता न हो। इस जीवको सबसे महती व्यग्रता शारीरिक स्वास्थ्यकी रहती है । यह शरीर पुद्गल समुदायसे निष्पन्न हुआ हैं परन्तु हम इसे अपना मानते हैं। प्रथम तो यह मान्यता मिथ्या है फिर जब इसे आत्मीय माना तब इसके रक्षणकी चिन्ता रहने लगी। रक्षणके लिये अनेक पदार्थोंका संग्रह करना पड़ता है। उस संग्रहमें अनेक प्रकारके अनर्थोंका आश्रय लेना पड़ता है। इसके लिये ही यह जीव हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार तथा परिग्रह इन पञ्च पापोंसे अपनेको नहीं बचा सकता । शरीरके अर्थ बड़े-बड़े प्राणियोंका घात करता देखा जाता है तथा अनेक प्राणियों का मांस खा जाता है। जिनके द्वारा अल्प भी भय हुआ तो उन्हें शीघ्र ही नष्ट करनेका उपाय करता है। इस तरह विचार किया जाय तो संसारका मूल कारण शरीरमें निजत्वकी कल्पना है। इसे नष्ट करनेका प्रयत्न सबसे पहले करना चाहिये। किसी वृक्षको उखाड़ना है तो उसकी जड़ पर प्रहार होना चाहिये । केवल पत्तोंके लोचनेसे वृक्ष नहीं उखाड़ा ना सकता। इस चातुर्मास्यके समय सागरसे सिंघई हालचन्द्र जी सराफ
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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