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श्रुत पञ्चमी
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परन्तु अनुभव से इसका परिचय सहज ही होजाता है । जब हम किसी कार्य करनेका प्रयत्न करते हैं तब हमें भीतर से जबतक वह कार्य न हो जावे चैन नहीं पड़ती यही आकुलता है । इसके दूर करनेके अर्थ हम जो व्यापार करते हैं उसका उद्देश्य यही रहता है। कि नाना प्रकारके उपायों द्वारा कार्यकी सिद्धि हो । कहाँतक लिखें ? प्राण जावें परन्तु कार्यं सिद्धि होना चाहिये ।
श्रुतपञ्चमीके दिन हम लोग शास्त्रोंकी सम्भाल करते हैं, पर झाड़ पोछकर या धूप दिखाकर अलमारीमें रख देना ही उनकी सम्भाल नहीं हैं । शास्त्रके तत्त्वको अध्ययन अध्यापनके द्वारा ससार के सामने लाना यहीं शास्त्रोंकी संभाल है । आज जैनमन्दिरों में लाखोंकी सम्पत्ति रुकी पड़ी है, जिसका कोई उपयोग नहीं । यदि उपयोग होता भी है तो सङ्गमर्मरके फर्श लगवाने -तथा सोने चाँदीके उपकरण बनवानेमे होता है पर वीतराग जिनेन्द्रकी वाणीके प्रचार करनेमें उसका उपयोग करनेमे मन्दिरोके अधिकारी सकुचाते हैं । यदि एक-एक मन्दिर एक एक ग्रन्थ प्रकाशनका भार उठा ले तो समस्त उपलब्ध शास्त्र एक वर्षमें प्रकाशित हो जावें । मन्दिरोंमे बहुमूल्य उपकरण एकत्रित कर चोरोंके लिये स्वयं आमन्त्रण देंगे और फिर हाय हाय करते फिरेंगे | यदि आपकी अरहन्तदेवमे भक्ति है तो उनकी वाणी रूप जा शास्त्र हैं उनमे भी भक्ति होना चाहिये और उनकी भक्तिका रूप यही हो कि वे अच्छे से अच्छे रूपमे प्रकाशित हो संसारके सामने लाये जावें । प्रसन्नताकी बात है कि इस समय लोगोंका धार्मिक संघर्ष बहुत कम हो गया है। एक समय तो वह था जब कोई किसी अन्य धर्मकी वातको श्रवण ही नहीं करना चाहता था 'पर 'प्राजके मानवमें इतनी सहन शीलता आ गई है कि यदि उसे कोई अपनी बात प्रेमसे सुनाना चाहता है तो वह उसे सुनने के