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मेरी जीवन गाथा
विश्वास अमुक धर्मसे है, हमारी तो प्रीति इसी धर्ममे है | विचार कर देखो - प्रथम उस धर्मको निज माना तभी तो उसमें प्रेम हुआ और यदि धर्मको निज न माने तो उसमे अनुराग होना सम्भव है । यही कारण है कि १ धर्मवाला अन्य धर्मसे प्रेम नहीं करता अतः जिनको अत्म-कल्याण करना है वे संसार के कारणोंसे न राग करें न द्वेष करें ।
आत्मा एक स्वतन्त्र द्रव्य है, ज्ञान दर्शनवाला है अथवा वाला क्यों ज्ञान दर्शनरूप है क्योंकि निश्चयसे गुण- गुणीमे अभेद हैं । उसका बोध होनेसे यह जीव संसारसे मुक्त हो जाता है
श्राप रूपके वोघसे मुक्त होत सत्र पाप । ज्यों चन्द्रोदय होत ही मिटत सकल संताप ॥
कहने का भाव यह है कि विवेकसे कार्य करो, विना विवेकके कोई भी मनुष्य श्रेयोमार्गका पथिक नही बन सकता । प्रथम तो विवेकके वलसे आत्मतत्त्वकी दृढ़ श्रद्धा होना चाहिये फिर जो भी कार्य करो उसमें यह देखो कि इस कार्यके करनेमे हमको कितना लाभ है कितना लाभ है ? जिस लाभके अर्थ मैंने परिश्रम किया वह परिश्रम सुख पूर्वक हुआ या दुःख पूर्वक हुआ ? यदि उस कार्यके करनेमें संक्लेशकी प्रचुरता हो तो उस कार्यके करने में कोई लाभ नहीं । जव प्रथमतः ही दुःख सहना पड़ा तब उसके उत्तर में सुख होगा कुछ ध्यानमे नहीं आता । दो प्रकारके कार्य जगन में देखे जाते हैं, एक लौकिक और दूसरे अलौकिक । लौकिक कार्य किन्हें कहते हैं ? जिनसे हमको लौकिक सुखका लाभ होता है उसे हम पुरुषार्थं द्वारा प्राप्त करनेकी चेष्टा करते हैं । परन्तु परमार्थसे वह सुख नहीं क्योंकि सुख तो वह वस्तु है जहाँ श्राकुलता न हो । वहाँ तो श्राकुलताकी बहुलता है । आकुलताकी परिभाषा कुछ बना लो