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श्रुत पञ्चमी
२६३ त्यागियोंकी वात कौन कहे ? वह तो त्यागी हैं, किसके त्यागी हैं सो दृष्टि बलिये, पता चलेगा। यदि यह पण्डित वर्ग चाहे तो समाजका बहुत कुछ हित कर सकता है। जो पण्डित हैं वे यह नियम कर लेवें कि जिस विद्यालयमे हमने प्रारम्भसे विद्या अर्जित की है और जिसमे अन्त स्नातक हुए, अपनेको कृतज्ञ बनानेके लिये उन्हे २) प्रति मास देंगे। १) प्रारम्भ विद्यालयको और १) अन्तिम विद्यालयको प्रतिमास भिजवावेंगे। यदि २८०) मासिक उपार्जन होगा तो २॥ २॥) प्रतिमास भिजवावेंगे तथा एक वर्षमे २० दिन दोनों विद्यालयोंके अर्थ देवेंगे । अथवा यह न दे सकें तो कमसे कम जहाँ जावें उन विद्यालयोंका परिचय तो करा देखें। जिन्हे १००) से कम आय हो वे प्रति वर्ष ५) ५) ही विद्याजननीको पहुँचा देवें तथा यह सब न बने तो एक वर्ष कमसे कम जिस ग्रामके हों वहाँ रहकर लोगोंमें धर्मका प्रचार तो कर देवें।
त्यागीवर्गको यह उचित है कि जहाँ जावें वहाँपर यदि विद्यालय होवे तो ज्ञानार्जन करें, केवल हल्दी धनिया जीरेके त्यागमे ही अपना समय न वितावें। गृहस्थोंके बालक जहाँ अध्ययन करते हैं वहाँ अध्ययन करें तथा शास्त्रसभामे यदि अच्छा विद्वान हो तो उसके द्वारा शास्त्र प्रवचन प्रणालीकी शिक्षा लेवें। केवल शिक्षा प्रणाली तक न रहें किन्तु संसारके उपकारमें अपनेको लगा दें। यह तो व्यवहार है, अपने उपकारमे इतने लीन हो जावें कि अन्य बात ही उपयोगमे न लावें । कल्याणका मार्ग पर पदार्थोसे भिन्न जो निज द्रव्य है उसीमे रत हो जावें। इसका अर्थ यह है कि परमे जो राग द्वेष विकल्प होते हैं उनका मूल कारण मोह है। यदि मोह न हो तो यह वस्तु मेरी है यह भाव भी न हो। तव उसमे राग हो यह सर्वथा नहीं हो सकता। प्रेम तभी होता है जब उसमे अपना अस्तित्व माना जावे । देखो-मनुष्य प्रायः कहते हैं कि हमारा