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मेरी जीवन गाथा गये थे । लंकाके चारों ओर उनका कटक पड़ा था। हनूमान् आदिने रामचन्द्रजीको खबर दी कि रावण जिनमन्दिरमें बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है। यदि उसे यह विद्या सिद्ध हो गई तो फिर वह अजेय हो जायगा। आज्ञा दीजिये कि जिससे हम लोग उसकी विद्यासिद्धिमे विघ्न करें। रामचन्द्रजीने कहा कि हम क्षत्रिय हैं, कोई धर्म करे और हम उसमे विघ्न डालें यह हमारा कर्तव्य नहीं है। सीता फिर दुर्लभ हो जायगी...." यह हनुमानने कहा। रामचन्द्रजीने जोरदार शब्दोंमें उत्तर दिया-हो जाय, एक सीता नहीं दो सीताएँ दुर्लभ हो जॉय पर मैं अन्याय करने की आज्ञा नहीं दे सकता। रामचन्द्रजीमे जो इतना विवेक था उसका कारण क्या था ? कारण था उनका सम्यग्दर्शन-विशुद्ध क्षायिक सम्यग्दर्शन।
सीताको तीर्थयात्राकं वहाने कृतान्तवन सेनापति जंगलमें छोड़ने गया। क्या उसका हृदय वैसा करना चाहता था ? नहीं, वह तो स्वामीकी परतन्त्रतासे गया था। उस वक्त कृतान्तवक्रको अपनी पराधीनता काफी खली। जब वह निर्दोष सीताको जंगलमे छोड अपने अपराधकी क्षमा माँग वापिस पाने लगा तब सीता उससे कहती है-सेनापते । मेरा एक संदेश उनसे कह देना । वह यह कि जिस प्रकार लोकापवादके भयसे आपने मुझे त्यागा है इस प्रकार लोकापवादके भयसे जैनधर्मको नहीं छोड़ देना। उस निराश्रित अपमानित स्त्रीको इतना विवेक बना रहा। इसका कारण क्या था? उसका सम्यग्दर्शन । आज कलकी स्त्री होती तो पचास गालियों सुनाती और अपने समानताके अधिकार बनाती। इतना ही नहीं, सीता जब नारदजीके आयोजन द्वारा लवणांकुशके साथ अयोध्या आती है। एक वीरता पूर्ण युद्धके वाद पिता-पुत्रका मिलाप होता है, सीता लज्जासे भरी हुई राज दरवारमे पहुंचती है। उसे देखकर