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पर्व प्रवचनावली
३५१ रामचन्द्रजी कह उठते हैं कि दुष्ट! तू विना शपथ दिये-विना परीक्षा दिये यहाँ कहाँ ? तुझे लज्जा नहीं आई ? सीताने विवेक
और धैर्यके साथ उत्तर दिया कि मैं समझी थी कि आपका हृदय कोमल है पर क्या कहूँ ? आप मेरी जिस प्रकार चाहे शपथ ले लें। रामचन्द्रजीने उत्तेजनामें आकर कह दिया कि अच्छा अग्निमे कूद कर अपनी सचाईकी परीक्षा दो। बड़े भारी जलते हुए अग्नि कुण्डमे कूदनके लिये सीता तैयार हुई। रामचन्द्रजी लक्ष्मणसे कहते हैं कि सीता जल न जाय । लक्ष्मणने कुछ रोपपूर्ण शब्दोंमे उत्तर दिया कि यह आज्ञा देते समय न सोचा ? यह सती है, निर्दोष हैं । आज आप इसके अखण्ड शीलकी महिमा देखिये। इसी समय दो देव केवलीकी वन्दनासे लौट रहे थे । उनका ध्यान सीताका उपसर्ग दूर करनेकी ओर गया। सीता अग्नि कुण्डमें कूद पड़ी और कूदते ही साथ जो अतिशय हुआ सो सब जानते हो। सीताके चित्तमें रामचन्द्रजीके कठोर शब्द सुन कर संसारसे वैराग्य हो चुका था पर 'निःशल्यो व्रती' व्रतीको निःशल्य होना चाहिये। यदि विना परीक्षा दिये मैं व्रत लेती हूं तो यह शल्य निरन्तर बनी रहेगी। इसलिये उसने दीक्षा लेनेसे पहले परीक्षा देना आवश्यक समझा था। परीक्षामें वह पास हो गई, रामचन्द्रजी उससे कहते हैं-देवि ! घर चलो । अव तक हमारा स्नेह हृदयमे था पर अब आँखोंमे आ गया है । सीताने नीरस स्वरमें कहा
कहि सीता सुन रामचन्द्र संसार महादु ख वृक्षकंद । तुम जानत पर कुछ करत नाहि................"|| रामचन्द्रजी ! यह घर दुखरूपी वृक्षकी जड़ है। अब मैं इसमे न रहूँगी। सच्चा सुख इसके त्यागमें ही है। रामचन्द्रजी ने बहत कुछ कहा-यदि मैं अपराधी हूँ तो लक्ष्मणकी ओर देखो, यदि