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दिल्लीकी श्रोर
अपनी अपनी भक्तिके अनुकूल पात्रको दान देनेकी चेष्टा की, परन्तु जो पात्र हैं वे मर्यादातिक्रमण कर दान लेते हैं । चरणानुयोग की पद्धतिको प्रतिक्रमण कर नई नई पद्धति निकालना उचित नही । प्रायः पात्रको देखकर दान देनेवाला व्यक्ति भयसे कम्पायमान हो जाता है । इसमे पात्र की सरलता ही कारण है ।
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यमुना नदी
पर आ गये । यहाँसे
यहीं भोजन हुआ ।
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आज कल इस पञ्चम् लोगोंमे धामिक प्रेम है उसका भोजन हो गया जब तक त्यागी भोजन
रत्नपुरसे ३ मील चलकर ३ मील चलकर कुतुवपुरी आ पहुँचे । जिसने भोजन दिया वह बहुत प्रसन्न हुई काल अनेक आपत्तियोंके आने पर भी तथा त्यागीकी महती प्रतिष्ठा करते हैं मानो उन्हे त्रैलोक्यकी निधि मिल गई। न करले तब तक बड़ी सावधानी रखते हैं । यही भावना निरन्तर रखते हैं कि किसी तरह मेरे घर पात्रका भोजन हो जावे । दैवयोग से पात्र या जावे तो मेरा धन्यभाग होगा । २ वजे आमसभा हुई । यहाँ पर जो ठाकुर राणा थे आपने शिकार छोड़ दिया तथा मदिरा का भी त्याग कर दिया । ग्रामके अन्य प्रतिष्ठित लोगोंने भी मांस मदिराका त्याग किया । यहाँसे २ मील चलकर समस्तपुर मे ठहर गये । दूसरे दिन प्रातः ६ मील चलकर नकुड़ आ गये । ग्रामवालोंने स्वागतसे धर्मशालामे ठहराया। मन्दिरमे प्रवचन हुआ पश्चात् भोजन हुआ। दिनके ३ बजेसे सभा हुई । जो सर्वत्र होता है वही यहाँ हुआ, कुछ विशेष लाभ नहीं हुआ और न होनेकी संभावना है क्योंकि मनुष्यों के भाव प्रायः निर्मल नहीं रहते । अगले दिन मन्दिर में प्रवचन हुआ। कुछ तत्त्व दृष्टिगोचर नहीं हुआ, केवल रस्म अदा करना पड़ती है । वक्ताको स्वयं अपनेमें आत्मकल्याणकी भावना रखना चाहिये । कल्याणका मूल कारण स्वपर विवेक है । जिनने स्वपर विवेक किया उनका जन्म सार्थक है । मध्यान्होपरान्त ३
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