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दिल्ली के शेष दिन
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चक्कर लगाते है । कहाँ तक कहे, बड़े बड़े विद्वान् भी इसकी प्रतिष्ठा करते हैं । प्रायः प्राचीन राजाओं की प्रशंसामे जो काव्य बने हैं वे अधिकांश इसी द्रव्यकी लालच में पड़कर बने हैं। अस्तु,
मैंने तो उत्सवमे यही कहा कि संसारके प्रणिमात्रपर दया करो | हम लोग श्रावेगसें आकर संसारके प्राणियोंको नाना प्रकार से निग्रह करते हैं । हमारे प्रतिकूल हुआ उसे अपना शत्रु और अतुकूल हुआ उसे मित्र मान लेते हैं । वास्तवमे न तो कोई मित्र हैं और न कोई शत्रु है । यही भावना निरन्तर श्राना चाहिये । वह भी इस उद्देश्यसे कि आत्मा वन्धनसे विनिर्मुक्त हो जावे । मनुष्य जन्मकी सार्थकता संयम के पालनेमें हैं । संयमका अर्थ कषायसे आमाकी रक्षा करना है । इसके लिये यह पदार्थोंसे संपर्क त्यागो । यद्यपि पर पदार्थ सदा विद्यमान रहेगे, क्योंकि लोकमे सर्व पदार्थ व्याप्त हैं । इस तरह उनका त्यागना किस प्रकार बनेगा यह प्रश्न उठता है तथापि उनमें जो हमारी आत्मीय कल्पना है उसके त्यागनेसे पर पदार्थोंका त्यागना वन जाता है । वे यथार्थ में दुःखदायी नहीं, किन्तु उनमें जो ममत्वभाव है वही दुःखदायी है । रागद्व ेष आत्माके सबसे प्रबल शत्रु हैं, उन्हे नष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिये | 'जो जो देखो वीतरागने सो सो होसी वीरा रे' इस वाक्यसे संतोषकर लेना अन्य वात हैं और पुरुषार्थकर रागद्वेपका निपात करना अन्य बात है । राग-द्व ेष कोई ऐसे वज्र नहीं जो भेदे न जा सकें | अपनी भूलसे ये होते और अपनी बुद्धिमत्तासे विलीन हो सकते हैं । कायरतासे इनकी सत्ता नहीं जाती । ये वैभाविकभाव है - आत्माके क्लेशकारक हैं । इनके सद्भावसे आत्माको बेचैनी रहती है । उसके अर्थ यह नाना प्रकारके उपाय करता है । उससे बेचैनीका हास नहीं होता प्रत्युत वृद्धि होती है ।