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मेरी जीवन गाथा
स्पृश्यास्पृश्य की चर्चा लोग करते हैं पर जैनधर्म कब कहता है कि तुम अस्पृश्योंको नीच समझो। तुम्हीं लोग तो अस्पृश्योंको जूठन खिलाते हो और यहाँ बड़ी बड़ी बातें बनाते हो । नियम करो कि हम अस्पृश्योंको अपने जैसा भोजन देंगे फिर देखो अपने प्रति उनका हृदय कितना पवित्र और ईमानदार रहता है । मैं अन्यकी बात नहीं कहता पर वाईजीकी कहता हूँ । सागरकी बात हैं, सावन दीपावली आदि पर्वोंके दिन वाईजी जो पेड़ा या पुडी मुझे खिलाती थीं वही अपनी मेहतरानीको खिलाती थीं । जब उनसे कोई कहता कि आप इसे पीछेका बचा हुआ रद्दी पेड़ा क्यों नहीं दे देतीं ? तो वे उसे घुड़ककर उत्तर देती थीं कि क्या मैं इसे रोज देती हूँ ? इसे अच्छा भोजन कब मिलेगा ? एक बार संबासमे बाईजीकी सोनेकी चूड़ी गिर गई पर वाईजी - को पता नहीं। दूसरे दिन वह मेहतरानी अपने आप चूडी घर दे गई । हम सबको उसकी ईमानदारी पर आचर्य हुआ । मैं स्वयं एक बार रेशन्दीगिरिके मेलेमें तांगासे गया, साथमे और भी बहुतसे तांगे थे । वाईजीने मुझे चार पेड़े रख दिये, रास्ते मे मैंने दो पेड़े तांगावालेको दिये और दो मैंने खाये । कच्ची रास्ता में धूल उड़ने लगी, मुझे कष्ट हुआ । मैंने नाकपर कपड़ा लगा लिग | तांगावालेने ज्यों ही देखा, भटसे तांगा आगे ले गया । इससे साथवालेने तागेवालोसे आगे ले जानेको कहा और साथमें इस बातकी धमकी दी कि हमने भी तो तुम्हें उतना ही किराया दिया है। तागेवाले ने कहा कि आपने किराया दिया सो तो ठीक हैं पर स्वयं भूखा रह कर दो पेड़े तो नहीं दिये ? हृदयपर हृदयका असर पड़ता है। आप धोत्रीका धुला कपड़ा उठाने दोष सममते हैं पर शरीरपर चर्बी से सने कपड़े बड़े शौक से धारण करते हैं। क्या यही जैनधर्म है ? जैनधर्म पवित्रताका विरोधी नहीं पर घृणाको बह
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