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दिल्लीके शेष दिन
१३५ कषाय अतएव हेय समझता है। क्या कहे लोग बाह्य आचारमें तो वाघकी खाल निकालते हैं पर अन्तरङ्गको शुद्ध करनेकी ओर ध्यान ही नहीं देते । दिल्लीमे हरिजन विषयक चर्चा हमारे अन्तरङ्गकी परीक्षा रही । पर मेरे मनमे जो बात थी वह व्यक्त कर दी। मैं तो इस पक्षला हूँ कि प्राणीमात्रको धर्म-साधनका अधिकार है। पञ्च पाप त्यागनेका अधिकार प्रत्येक मनुष्यको है, क्योंकि जव उसकी
आत्मा बुद्धिपूर्वक पाप करती है तब उसे छोड़ भी सकती है। मन्दिरमे आना न आना इसमें बाधक नहीं। आज कल सर्वत्र यही चर्चा हो रही है कि हरिजनोंको मन्दिर नहीं जाने देना चाहिये, क्योंकि वे हरिजन हैं। अपवित्र हैं, पूर्वाचार्यों ने उन्हे अस्पृश्य बतलाया है। अस्पृश्यका अर्थ यह है कि उनको स्पर्श कर स्नान करना पड़ता है। यहा प्रश्न होता है कि वे आखिर अरपृश्य क्यों हैं ? ये मदिरापान करते हैं इससे अस्पृश्य हैं या हम लोगोंके द्वारा की हुई गन्दगीको स्वच्छ करते हैं इसलिये अस्पृश्य हैं या शरीरसे मलिन रहते हैं इससे अस्पृश्य हैं या परम्परासे हम उन्हे अस्पृश्य मानते आ रहे हैं इससे अस्पृश्य हैं ? यदि वे मदिरा पानसे अस्पृश्य हैं तो लोकमें बहुतसे उच्चकुलीन भी मदिरापान आदि करते हैं वे भी अस्पृश्य होना चाहिये। यदि गन्दगीको स्वच्छ करनेसे अस्पृश्य हैं तो प्रत्येक मनुष्य गन्दगी साफ करता है, वह भी अस्पृश्या हो जावेगा। यदि शरीरकी मलिनता अस्पृश्यताका कारण है तो बहुतसे उत्तम कुलवाले भी शरीरकी मलिनतासे अस्पृश्य हो जावेंगे। यदि उनमें मलिनाचारकी बहुलता उनकी अस्पृश्यतामे साधक है तो यह बहुत उत्तम कुलोमें भी पाई जाती है। विरले विरले उत्तम कुलबाले तो इतना पापाचार करते हैं जितना नीच कुलवाले भी नहीं कर सकते। इससे सिद्ध होता है कि चाहे ऊँच हो या नीच जिसमे पापाचारमय प्रवृत्ति है वही