SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ मेरी जीवन गाथा कल्याणके मार्गसे दूर है। यदि आज शूद्र पञ्च पापका त्याग कर देवें तो वह भी अणुव्रती हो सकते हैं तथा अन्तरजसे जिनेद्रदेवकी भक्तिके पात्र हो सकते हैं। ब्राह्मण मर कर नरक जा सकता है और चाण्डाल मर कर स्वर्गमें देव हो सकता है । यह तो अपनी अन्तरङ्ग परिणतिकी निर्मलताके ऊपर निर्भर है। इस निर्मलताको रोकनेका किसीको अधिकार नहीं। खेद इस वातका है कि जो अपनेको उच्च वर्णवाले मानते हैं उन्होंने नीच कहे जानेवाले लोगोंकी पवित्रताका अपहरण किया है। इसीका फल है कि उच वर्णवाले ऊपरसे उच्च वर्ण है पर भीतरसे उनमें उच्चताके दर्शन नहीं होते। अस्तु, अप्रासद्भिक चर्चा आ गई, परमार्थकी वात तो यह है कि शुद्ध चित्तके लिये शुद्ध आत्माको जानो । शुद्ध ज्ञान बहु है जिसमें रागादिभावकी कलुपता न हो। शत्रु रागादिक ही है अन्य कोई नहीं। रागादिके अनुकूल पर पदार्थ होता है तब तो उसकी रक्षाका प्रयत्न होता है और रागादिके प्रतिकूल होनेसे उसके नाशके लिये प्रयत्न करनेकी सूमती है। इस परणतिको धिक्कार ही देना चाहिये। जयन्तीका उत्सव समाप्त हुआ, लोग अपने अपने घर गये । एक दिन साहु शान्तिप्रसादजीने भारतीय ज्ञानपीठ बनारसके लिये दश लाख रुपयेके शेयर प्रदान किये और उससे सम्बद्ध कागजॉपर मैंने हस्ताक्षर कर दिये। हस्ताक्षर तो कर दिये पर जब विचार किया तब मुझे लगा कि मैने महती भूल की। उचित यहीं था कि चाहे कुछ हो परिग्रहके विपयमें कुछ भी नहीं करना चाहिय । अस्तु, जो हुआ सो ठीक है अब ऐसे कार्योंमे उपयोग नहीं लगाना चाहिये - यह विचार स्थिर किया। यथार्थमे कल्याणका मार्ग तो निराकुलतामे है । जहाँ आकुलता है वहाँ शान्ति नहीं। हमारी प्रवृत्ति आजन्म प्रवृत्तिमार्गमें लग रही है, अतः निरीहमागेकी
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy