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दिल्लीके शेष दिन
आसोज वदी ४ सं० २००६ को मेरा नयन्ति उत्सव था जिसमे उद्योगमन्त्री भी पधारे थे । आपने समयानुकूल अच्छा भाषण दिया । अनेक लोगों ने श्रद्धाञ्जलियाँ दी जिन्हें सुनकर मुझे बहुत संकोच उत्पन्न हुआ । श्री शान्तिप्रसाद जी साहु प्रसिद्ध नर रत्न हैं । आप बहुत ही नम्र तथा शान्त हैं। आपने एक लाख रुपया स्याद्वाद विद्यालयको देकर अमर कीर्तिका अर्जन किया । अब बहुत अशोंमे विद्यालयकी त्रुटि दूर हो गई। आशा है इनके दानसे समाज भी चेतेगी । महाविद्यालय समाजका महोपकार कर रहा है । श्रीयुत रतनलालजी -मादेपुरियाने भी २१०० ) स्याद्वाद विद्यालयको दिये । ११) मासिक व्याज देते जायेंगे और रुपये अपने यहाँ ही जमा रक्खेंगे । जब विद्यालयको श्रावश्यकता पड़ेगी, वापिस दे देवेंगे। परन्तु मेरी बुद्धिसे यह वात यथार्थ नहीं, क्योंकि दानका रुपया दे देना ही श्रेयस्कर है । इसमे काल पाकर नकारा भी हो सकता है, क्योकि द्रव्य अपने ही पास तो है । काल पाकर लोग बड़े बड़े वायदे भी तबदील कर देते हैं। मैं इस दानको दान नहीं मानता। दानके मायने दत्त द्रव्यसे ममत्व त्याग देना है। दान देकर उससे ममता रखना दानके परिणामों का विघात है । मनुष्य आवेगमे आकर दान तो कर बैठता है और लोगोंसे धन्यवाद भी ले लेता है । पश्चात् जन अन्तरसे विचार करता है तब व्यय होने लगता है । वह विचारता है कि मैंने बड़ी गलती की जो रुपया दे श्राया । स्पयेसे संसार में मेरी प्रति है । इसके प्रसादसे बडे बड़े महान पुरुष मेरे द्वारपर