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पर्व प्रवचनावली
३०७ कर देते हैं और कर्णेन्द्रियके आधीन हो हरिण बहेलियोंके द्वारा मारे जाते हैं। ये तो पञ्चेन्द्रियोंमे एक-एक इन्द्रियके
आधीन रहनेवाले जीवोकी बात कही पर जो पांचों ही इन्द्रियोंके वशीभूत हैं उनकी तो कथा ही क्या है। पञ्चेन्द्रियोंमें स्पर्शन
और रसना ये दो इन्द्रियां अधिक प्रवल हैं । चट्टकर स्वामीने मूलाचारमे कहा है कि चतुरङ्गल प्रमाण स्पर्शन
और रसना इन्द्रियने संसारको पटरा कर दिया-नष्ट कर दिया। इन इन्द्रियोंकी विषयवाहको सहन करनेके लिये जब प्राणी असमर्थ हो जाता है तब वह इनमें प्रवृत्ति करता है। कुन्दकुन्द स्वामीने प्रवचनसारमे यहाँ तक लिखा है कि संसारके साधारण मनुष्योंकी तो कथा ही क्या है ? हरि, हर, हलधर, चक्रधर तथा देवेन्द्र श्रादिक भी इन्द्रियोंकी विषय दाहको न सहकर उनमें झम्पापात करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि बड़े बड़े पुरुष इनमें झम्पापात करते हैं अतः ये त्याज्य नहीं है। विष तो विष ही है, चाहे उसे छोटे पुरुष पान करें चाहे बड़े पुरुष । हरि-हरादिककी विषयोंमें प्रवृत्ति हुई सही परन्तु जब उनके चारित्रमोहका उदय दूर हुआ तब उन्होंने उस विषयमार्गको हेय समझ कर त्याग दिया। भगवान ऋषभदेव अपने राज्य पाट भोग विलासमें निमग्न थे परन्तु नीलाञ्जनाका विलय देख विषयोंसे विरक्त हो गये। जब तक चारित्रमोहका उदय उनकी आत्मामें विद्यमान रहा तब तक उनका भाव विषयोंसे विरक्त नहीं हुआ। उन्होंने समस्त राज्य वैभव छोड़ कर दिगम्बर दीक्षा धारण की। इससे यही तो अर्थ निकला कि यह विषयका मार्ग श्रेयस्कर नहीं। यदि श्रेयस्कर होता तो तीर्थंकर आदि इसे क्यों छोड़ते । अतः अन्तरङ्गसे विषयेच्छाको दूर कर आत्महितका प्रयत्न करना चाहिये।
वज्रदन्त चक्रवर्ती सभामे विराजमान थे। मालीने एक सहस्त्र