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मेरी जीवन गाथा दल कमल उनकी सेवामे भेट किया। सूंघनेके बाद जब उन्होंने कमलके अन्दर मृत भ्रमरको देखा तो उनके हृदयके नेत्र खुल गये। वे विचार करने लगे कि देखो नासा इन्द्रियके वशीभूत हो इस भ्रमरने अपने प्राण गॅवाये हैं। यह विषयासक्ति ही जन्म-मरणका कारण है । ऐसा विचार कर उन्होंने दीक्षा लेनेका विचार कर लिया। चक्रवर्ती थे इसलिये राज्यका भार बड़े पुत्रको देने लगे। पुत्रके भी परिणाम देखो, उसने कहा पिताजी | यह राज्यवैभव अच्छा है या बुरा ? यदि अच्छा है तो आप ही इसे क्यों छोड़ रहे हैं ? यदि बुरा हैं तो फिर मैं तो आपका प्रीतिपात्र हूँ-स्नेह भाजन हूँ। यह बुरी चीज मुझे ही क्यों दे रहे हैं। किसी शत्रुको दीजिये। चक्रवर्ती निरुत्तर हो गये। दूसरे पुत्रको राज्य देना चाहा, उसने भी लेनेसे इनकार कर दिया। तब पुण्डरीक नामका छोटा मा वालक जो कि बड़े पुत्रका लड़का था उसका राज्याभिषेक कर वन को चले गये। उनके मनमें यह भी विकल्प न उठा कि पखण्डके राज्यको छोटा सा वालक कैसे संभालेगा ? संभाले या न संभाले, इसका विकल ही उन्हें नहीं उठा। यही सच्चा वैराग्य कहलाता है । हम लोग तो 'आलसी वानिया अपशकुनकी वाट जोहै' वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हैं। जरा जरासे कामके लिये बहाना खोजा करते हैं पर यह निश्चित समझो, ये वहाना एक भी काम न आवेंगे। मनुष्य जीवनका भरोसा क्या है ? अभी आरामसे बेटे हो पर हार्ट फेल हो जाय तो पर्याय समाप्त होते देर न लग इसलिये समय रहते. सावधान हो जाना विवेकका कार्य है। 'मुग्गनरक, पशुगतिमें नाहीं' यह संयम देव. नरक तथा पशुगनिमें प्राप्त नहीं होता। यद्यपि पशुगति संयमासंमयरूप थोडा मा मंयम प्रकट हो जाता है पर वह उत्सृष्ण संयमके समान नगन्य ही है। यह संयम कर्मभूमिके मनुष्य ही हो सकता है अतः मनु प पयान