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पर्व प्रवचनावली
३७६ पाकर उसे अवश्य धारण करना चाहिये। अपनी शक्तिको भूलकर लोग दीन-हीन हो रहे हैं। कहते हैं कि हममे अमुक काम नहीं बनता, अमुक विपय नहीं छोड़ा जाता । यदि राजाज्ञा होने पर बलात्कार यह काम करना पड़े तो फिर शक्ति कहाँसे आवेगी । आत्मामे अचिन्त्य शक्ति है। यह प्राणी उसे भूल पर पदार्थका आलम्बन ग्रहण करता फिरता है परन्तु यह निश्चित है कि जब तक यह परका आलम्बन छोड़ अपनी स्वतन्त्र शक्तिकी ओर दृष्टिपात न करेगा तब तक इसका कल्याण नहीं होगा।
आजका मनुष्य इच्छाओंका कितना दास हो गया है ? न उसके रहन-सहनमें विवेक रह गया है, न खान-पानमे भक्ष्याभक्ष्यका विचार शेप रहा है। स्त्री-पुरुषोंकी वेष-भूषा ऐसी हो
कि जिससे कुलीन और अकुलीनका अन्तर ही नहीं मालूम होता है। पुरुप स्वयं विषयोंका दास हो गया है जिससे वह लियोंको नाना प्रकारके उत्तेजक वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित देख प्रसन्नताका अनुभव करता है। यदि पुरुषके अन्दर थोड़ा विवेक रहे तो वह अपने घरके वातावरणको संभाल सकता है।
आजके प्राणी जिह्वा इन्द्रियके इतने दास होगये हैं कि उन्हें भक्ष्य अभक्ष्यका कुछ भी विचार नहीं रह गया है। जिन चीजों में प्रत्यक्ष
सघात अथवा. वहुस्थावरघात होता है उन्हे खाते हुये वे सुखका अनुभव करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि हमारे अल्प स्वादके पीछे अनन्त जीवोंकी जीवन लीला समाप्त हो रही है। आज खाते समय लोग दिन-रातका विकल्प छोड़ बैठे हैं। उन्हे जव मिलता है तभी खाने लगते हैं। आशाधरजीने कहा है कि उत्तम मनुष्य दिनमे एक वार, मध्यम मनुष्य दो बार और अधस मनुष्य पशुके समान चाहे जब भोजन करते हैं। जैसे पशुके सामने जब भी घासका पला डाला जाता है वह तभी उसे खाने लगता है वैसे ही आजका मनुष्य