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मेरो जीवन गाथा
जब भी भोजन सामने आता है तभी खाने लगता हैं ।
छठवें अध्यायमे आपने आस्रवतत्त्वका वर्णन सुना है । मेरी दृष्टिमें यह अध्याय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । हम कर्मबन्धसे बचना तो चाहते हैं पर कर्म किन कारणोंसे बँधते हैं यह न जाने तो कैसे वच सकते हैं ? बुद्धिपूर्वक अथवा अबुद्धिपूर्वक ऐसे बहुतसे कार्य हम लोगों से होते रहते हैं जिनसे कर्मका बन्ध जारी रहता है । जो वैद्य रोग निदानको ठीक ठीक समझ लेता है उसकी दवा तत्काल लाभ पहुँचा देती है पर जो निदानको समझे बिना उपचार करता -है उसकी दवा महीनों सेवन करनेपर भी लाभ नहीं पहुँचाती ।
'श्राव चोर चोरी कर ले गव मोरी मूं दत मुगध फिरे'
सीधा सीधा पद है । किसीके घर चोर आया और चोरी कर गया पर उस मूर्ख को यह पता नहीं चला कि चोर किस रास्ते से आया था अतः वह मुहरी पानी आने जानेके मार्गको चोरका मार्ग समझकर मूंदता फिरता है । दूसरी रात फिर चोर आते हैं । यही दशा संसारी प्राणीकी है कि जिन भावोंसे कर्मोका आस्रव होता है - कर्मरूपी चोर आत्मामे घुसते हैं उन भावों का इसे पता नहीं रहता इसलिये अन्य प्रयत्न कर्मोंका व रोकने के लिये करता है । पर - कर्मोंका आस्रव रुकता नहीं है । यही कारण है कि यह अनन्तवार -निलिङ्ग धारण कर नवम ग्रैवेयक तक उत्पन्न हुआ परन्तु संसार बन्धनसे मुक्त नहीं हो सका । जान पड़ता है कि उसे कर्मों के आका बोध ही नहीं हुआ । आत्माकी विकृत परिणति से होनेवाले श्रत्रत्रको 'उसने केवल शरीराश्रित क्रियाकाण्डसे रोकना चाहा सो कैसे रुक सकता था ? आगममे लिखा है कि अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मकी तपस्याके द्वारा भी जिस कर्मको नहीं खिपा सकता ज्ञानी जीव उसे क्षणमात्रमं खिपा देता है । तालेकी जो कुंजी है उसीसे तो वह