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मेरी जीवन गाथा
क्रोधके निमित्तसे आदमी पागल हो जाता है और इतना पागल कि अपने स्वरूप तकको भूल जाता है । वस्तुकी यथार्थता उसकी दृष्टिसे लुप्त हो जाती है। एकने एक को घूँसा मार दिया । वह उसका घूँसा काटने को तैयार हो गया पर इससे क्या ? घूँसा मारने का जो निमित्त था उसे दूर करना था । वह मनुष्य कुक्कुर वृत्ति पर उतारू हुआ है । कोई कुत्तेको लाठी मारता है तो वह लाठीको दातोंसे चवाने लगता है पर सिंह बन्दूक की ओर न झपट कर वन्दूक मारनेवाले की ओर झपटता है । विवेकी मनुष्यकी दृष्टि सिंहकी तरह होती है । वह मूल कारणको दूर करनेका प्रयत्न करता है । आज हम क्रोधका फल प्रत्यक्ष देख रहें हैं। लाखों निरपराध प्राणी मारे गये और मारे जा रहे हैं। क्रोध चारित्र मोहकी प्रकृति है । उससे आत्माके संयम गुणका घात होता है । क्रोधके भाव प्रकट होनेवाला क्षमा गुण संयम है, चारित्र हैं । राग द्वे प्रभाव को ही तो चारित्र कहते हैं ।
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ज्ञानसूर्योदय नाटककी प्रारम्भिक भूमिकामे सूत्रधार नटीसे कहता है कि आजकी यह सभा अत्यन्त शान्त है इसलिये कोई पूर्व कार्य उसे दिखलाना चाहिये । वास्तवमें शान्तिके समय कौनसा पूर्व कार्य नहीं होता ? मोक्षमार्ग में प्रवेश होना ही अपूर्व कार्य है । शान्तिके समय उसकी प्राप्ति सहज ही हो सकती है। आप लोग प्रयत्न कीजिये कि मोक्षमार्गमे प्रवेश हो और समा अनादि बन्धन खुल जाय । आजके दिन जिसने चमा धारण नहीं की वह अन्तिम दिन क्षमावणी क्या करेगा ? 'मैं तो या मा चाहता हूँ' इस वाचनिक क्षमाकी श्रावश्यक्ता नहीं है। हार्दिक क्षमासे ही आत्माका कल्याण होता है। श्रच्छेसे अच्छे आदमी बरबाद हो जाते हैं ।
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मैं नदिया (नवद्वीप) में दुलारमारे पास न्याय परना था।