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मेरी जीवन गाथा
संसारका अज्ञान दूर करनेका प्रयत्न करें तथा हम अज्ञानी जनोंको उचित है कि उनके परिवारादिके पोषणके अर्थ भरपूर द्रव्य दें | यदि हमारे धनकी विपुलता है तो उसे यथोचित कार्योंमे प्रदान -कर जगत्का उपकार करें जगत्का यह काम है कि उसके प्रति कृतज्ञताका भाव रखे । यदि संचित धनका उपयोग न किया जावेगा तब या तो उसे दायादगण अपनावेगा या राष्ट्र लेगा । जब संसारकी यह व्यवस्था है तब पुष्कल द्रव्यवाले आगे आकर बंगाल तथा पंजाव आदिके जो मनुष्य गृहविहीन होकर दुःखी हो रहे हैं उन्हें सहायता पहुॅचावें । जिनके पास पुष्कल भूमि है उसमे गृह विहीन मनुष्योको वसावें तथा कृषि करनेको देवें । जिनके पास मर्यादासे अधिक वस्त्रादि हैं वे दूसरों को देवें। मैं तो यहाँ तक कहता हूं कि आप जो भोजन ग्रहण करते हैं उसमेंसे भी कुछ अंश निकालकर शरणागत लोगोंकी रक्षामे लगा दो । यदि इस पद्धतिको अपनाया जावेगा तो जनता क्रान्तिसे स्वतः दूर रहेगी अन्यथा वह दिन शीघ्र आनेवाला है जिस दिन लोग किसीकी अनावश्यक सम्पत्तिको सहन नहीं करेंगे उसे वलात् छीनकर जनताके उपयोगमे -लावेंगे। अतः समयके पहले ही अपनी परिणतिको सुधारो और यथेष्ट दान देकर परलोककी रक्षा करो। धनवन्तीदेवीने आपके सामने एक आदर्श उपस्थित किया है । संचित द्रव्यका यदि अन्त में सदुपयोग हो जावे तो यह दाताकी भावी उत्तम परिणतिका सूचक है । सब लोग यदि यही नियम कर लें कि हमारे दैनिक भोजन तथा वस्त्रादिमें जो व्यय होता है उसमेसे १) में १ पैसा परोपकारमे प्रदान करेंगे तो मेरी समझसे जैन समाजमे प्रतिवर्ष लाखों रुपये एकत्रित हो जायें और उनसे समाज सुधारके अनेक कार्य अनायास पूर्ण हो जावें ।
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