________________
मेरी जीवन गाथा रहता था। प्रवचनके वाद मैं भी जो बनता था कह देता था। पहले दिन कण्ठ रुद्ध होनेके कारण मैं कुछ नहीं कह सका, इसलिये सभा विसर्जन हो गई। श्री रघुवीरसिहनी रईसके यहाँ भोजन हुआ। आपने ५०१) दानमे दिये । आज मनमें विचार आया कि जगत्को प्रसन्न करनेका भाव त्याग दो। जो कुछ बने स्वात्महित की ओर दृष्टिपात करो। संसारमें ऐसी कोई शक्ति नहीं जो सबका कल्याण कर सके। कल्याणका मार्ग स्वतन्त्र है। अन्तर्गत रागद्वेपका त्याग करना ही आत्मशान्तिका साधक है। अन्तरल रागादिक आत्माके शत्रु हैं, उनसे आत्मामे अशान्ति पैदा होती है
और अशान्ति आकुलता की जननी है, आकुलता ही दुःख है, दुःख किसीको इष्ट नहीं, सर्व संसार दुःखसे भयभीत है। अषाढ़ सुदी १२ के दिन कण्ठ ठीक हो जानेके कारण मैंने कुछ कहा । मेरे कहनेका भाव यह था कि
आत्मा मोहोदयके कारण पर पदार्थोंमे आत्मबुद्धि कर दुःखी हो रहा है। एक प्रज्ञा ही ऐसी प्रवल छैनी है कि जिसके पड़ते ही वन्ध और आत्मा जुदे जदे हो जाते हैं। आत्मा और अनात्माका ज्ञान कराना प्रज्ञाके आधीन है। जब आत्मा और अनात्माका ज्ञान होगा तब ही तो मोक्ष हो सकेगा। परन्तु इस प्रजारूपी छैनीका प्रयोग बड़ी सावधानीसे करना चाहिये । वुद्धिमे निजका अंश छूट कर परमे न मिल जाय और परका अंश निजमे न रह जाय यही सावधानीका मतलब है। ____धन धान्यादिक जुदे हैं, स्त्री-पुत्रादिक जुदे हैं, शरीर जुदा है, रागादिक भावकर्म जुदे हैं, द्रव्यकर्म जुदे हैं, मतिनानाटिक दायोपशमिक ज्ञान जुदे हैं। यहाँ तक कि ज्ञानमें प्रतिविम्बित होनेवाले ज्ञेयके आकार भी जुदे हैं। इस प्रकार स्वलनणके वलसे भेद करते करते अन्तमे जो शुद्ध चैतन्य भाव वाकी रह जाता है वही