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दिल्लीका परिकर
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हुआ था और जैनधर्मकी अद्भुत प्रभावना हुई थी । वि० सं० १८८० मे आपका देहावसान हुआ था । आपका एक ही पुत्र था जिसका सुगुनचन्द्र नाम था । यह भी अपने पिता के समान ही प्रतापी, धर्मनिष्ट तथा पुण्यशाली था ।
वर्तमान में भी यहाँ भारतवर्षीय दि० जैन अनाथालय नामकी संस्था चलती है जिसका विशाल भवन तथा साथमे स्कूल है । समाजमे कई उत्साही व्यक्ति हैं जो निरन्तर समाजको आगे बढ़ाते रहते हैं | लाला राजाकृष्ण भी एक दक्ष व्यक्ति हैं । इन्होंने अपने पुरुषार्थसे अच्छी से अच्छी संपति संचित की है तथा मन्दिरका निर्माण करा कर समाजसेवाके लिये उसका ट्रष्ट करा दिया है। इनके सिवा लाला फिरोजीलालजीका नाम भी उल्लेखनीय है । ये अधिकतर अपनी सम्पत्तिका उपयोग धार्मिक कार्योंमें करते रहते हैं।
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दिल्लीका परिकर
मेरे साथ श्री क्षुल्लक पूर्णसागरजी, क्षुल्लक चिदानन्दजी, व्र० सुमेरुचन्द्रजी भगत तथा एक दो त्यागी और थे। श्री कर्मानन्दजी जिनका आधुनिक नाम ब्र० निजानन्द था यहाँ थे ही । व्र० चाँदमलजी भी उदयपुरसे आगये थे, इसलिये यहाँ समय सम्यक् रीतिके व्यतीत होता था । दिल्ली बड़ा शहर है। अनेक मोहल्लोंमे दूर दूर पर जिन मन्दिर तथा जैनियोंके घर हैं । वृद्धावस्था के कारण मेरी प्रवचनकी शक्ति प्रायः क्षीण हो गई थी, अतः इन सबके प्रवचनों और भाषणोंसे जनताको लाभ मिलता