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इटावाकी श्रोर
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दिन सुमार्ग मिल जायगा । सुमार्ग अन्यत्र नहीं, जिस दिन राग कलंकका प्रक्षालन हो जायेगा उसी दिन आनन्दको भेरी बजने लगेगी ।
आत्माका स्वरूप ज्ञान दर्शन है अर्थात् देखना जानना । जब देखने जानने मे विकार होता है तब पर पदार्थोंमे रागद्वेषकी उत्पत्ति होती हैं । राद्वेषका उदय होने पर यह जीव किसीमे इष्ट और किसीमे अनिष्ट कल्पना करने लगता है । पश्चात् इष्टकी रक्षाका और अनिष्टके विनाशका सतत प्रयत्न करता है । यही इस जीवके संसार भ्रमणका कारण है ।
प्रात काल मोक्षमार्गप्रकाशकका स्वाध्याय किया । श्रीमान् पं० टोडरमल्लजी एक महान् पुरुष हो गये हैं, उन्होंने गोम्मटसारादि अनेक ग्रन्थोंकी इतनी सुन्दर व्याख्या की है कि अल्पज्ञानी भी उनके मर्मका वेत्ता हो सकता है । इससे भी महोपकार उन्होंने मोक्षमार्गप्रकाश ग्रन्थको सरल भाषामें रचकर किया है । उसमे उन्होंने चारों अनुयोगोंकी शैलीको ऐसी निर्मल पद्धतिसे दर्शाया है कि अल्पज्ञानी उन अनुयोगोंके पारंगत विद्वान् हो सकते हैं । तथा भारतमें जो अनेक दर्शन हैं उनकी प्रणालीका भी दिग्दर्शन कराया है । इस ग्रन्थका जो गम्भीर दृष्टिसे स्व ध्याय करेगा वह नियमसे सम्यग्दर्शनका पात्र होगा। पैरोंकी वेदनाका बहुत वेग बढ़ गया । जितना जितना उपचार होता है उतना उतना वेग बढ़ता है । वेदना बहुत तीव्र होती थी, परन्तु असन्तोष कभी नहीं आया । फिर वेदना होती ही क्यों है ? इसका पता नहीं चलता । इतना अवश्य है कि असाताके तीव्र उदयमें ऐसा समागम स्वयमेव जुड़ जाता है । जिससे मोही जीव अनेक प्रकारकी कल्पना कर दुःख भोगनेका कर्त्ता बनता है । अस्तु, यहाँ के लोग वेश्यानृत्यमें निरन्तर तत्पर थे। पैरोंकी वेदना ज्यों की त्यों थी और ज्वर भी यदा कदा आ ही
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