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________________ मेरी जीवन गाथा पौष सुदी ५ सं २००६ को जसवन्तनगर आ गये यहाँ पर जनताने मनःप्रसार कर स्वागत किया। बाहरसे भी बहुतसे मनुष्य 1 ये थे । स्त्री समाजकी संख्या भी प्रचुर थी । स्त्री समाजमें पुरुष समाजकी अपेक्षा धर्मकी आकांक्षा बहुत है परन्तु वक्ता महोदय तदनुकूल व्याख्यान नहीं देते। मेरी समझसे व्याख्यान पात्रके अनुकूल होना चाहिये । भोजनका पाक उदाग्निके अनुकूल होता है । यदि उदाग्निके अनुकूल भोजन न मिले तो उसकी सार्थकता नहीं होती । पौष सुदी ६ सं० २००६ को बड़ा दिन था । स्कूलोंका अवकाश होनेसे बच्चोंके हृदयोंमे उत्साह था । मेरे मनमें विचार श्राया कि जिस वस्तुका पतन होता है एक दिन वह वृद्धिको प्राप्त होती है । दिनका हास जितना होना था हो गया श्रव वृद्धिका अवसर आ गया । यहाँ बनारससे पं० कैलाशचन्द्रजी व खुशालचन्द्रजी आये। पण्डित कैलाशचन्द्रजीने शुद्धाचरण पर आध घंटा अच्छा व्याख्यान दिया । आज बड़े वेगमें ज्वर या गया, ८ बजे तक बड़ी वेचैनी रही उसीमे नींद आ गई। एक बार खुली अन्तमें कुछ शान्ति आई परन्तु पैरोंमे वातकी बहुत वेदना रही। दोनों पैर सूज गये । उपचार जिसके मनमे आता है सो करता हैं। मेरा तो यह दृढ़तम विश्वास है कि जिसके बहुत सहायक होते हैं उसे कभी साता नहीं मिल सकती। अनेकोंके साथ सम्बंध होना यह ही महासकट है। जिसके अनेक सम्बन्ध होंगे उसका उपयोग निरन्तर कंटोंमे उनका रहेगा । मनुष्य वही है जो परको सबमे हैय सममे । हेय ही न समझे उनमें न राग करे न द्वेप | सबसे बड़ा दोप यदि हममें है तो यह है कि हम सबको खुश करना चाहते हैं और उसका मूल कारण सब हमको अच्छी दृष्टिमे देखें । पर्धान सव यह कहें देखो फैमा शुद्ध आरसी हैं । उस लोकेपणाने ही हमें पतित कर रक्खा है । जिस दिन उस लोकपाको त्याग देंगे उसी १६०
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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