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इटावाकी ओर
१५६ चाहिये वह नहीं मिलती क्योंकि मनुष्योंका संसर्ग दूर नहीं होता। दोपहर बाद सभा हुई पर हनसे बोला नहीं गया । सरदीका प्रकोप था अतः गला बैठ गया। मनुष्य केवल निमित्त उपादानकी चर्चा में अपना काल बिताते हैं। पढ़े लिखे हैं नहीं, परिभापा जानते नहीं, केवल अनाप सनाप कह कर समय खो देते हैं। एक दिन यहाँके कटरा बाजारके मन्दिरमें दर्शनार्थ गये। बहुत विशाल मन्दिर है इस तरहका मन्दिर हमने नहीं देखा। संस्कृत ग्रन्थोंका भण्डार भी विपुल है उसमें गोम्मटसार, मूलाचार, प्रमेयकमलमार्तण्ड, यशस्तिलकचम्पू आदि बड़े बड़े ग्रन्थ हैं। २०० के लगभग सब होंगे। -हमने अवकाशाभावसे ग्रन्थ नहीं देखे । शास्त्रमे समागम अच्छा नहीं। यहाँ बनारससे श्वेताम्बर साधु श्री कान्तिविजयजी आये बहुत ही सज्जन प्रकृतिके थे, मन्दिरोंके दर्शन किये व साम्यभावसे वार्तालाप किया। यहाँसे १ वजे करहलको चल दिये और ३३ मील चल कर अंडसीकी एक धर्मशालामे ठहर गये। वहाँसे १-२ स्थानों पर ठहरते हुए करहल पहुंच गये। यहाँ लमेचू जैनियोंके २०० घर हैं, ४ मन्दिर और २ चैत्यालय हैं, जैनियोंके घर सम्पन्न हैं, १ हाई स्कूल तथा १ औपधालय भी। ऐसे स्थानों पर त्यागी वर्गको रहना चाहिये, बहुत कुछ उपकार हो सकता है। प्राचीन ग्रन्थ भण्डार भी है । लोगोंने स्वागतका बहुत आडम्बर किया । वास्तवमे
आडम्बरके सामने धर्मकी प्रभावना होती नहीं। जैनधर्मका जो सिद्धान्त था उसे गृहस्थोंने'लुम कर दिया, त्यागी वर्ग भी अपने — कर्तव्यसे च्युत है। पठन पाठन करनेका अवसर नहीं। केवल गल्पवाद रह गया है सो उससे क्या होनेवाला है ? लोक प्रशंसाके अर्थ ही मनुष्यों की चेष्टाएँ रहती हैं। सार तो निवृत्तिमार्गसे है सो वनती नहीं । गल्पवादसे कर्तव्यवाद अच्छा होता है । जहाँ तक बने धर्मके अर्थ उपयोग निर्मल रखना अच्छा है।