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मेरी जीवन गाथा जाता था। इसलिए लोग पाटे पर बैठाकर इटावा ले आये। यहाँ गाड़ीपुराकी धर्मशालामे ठहरे । स्थान अच्छा है । मन्दिर भी इसीमे है। एक कूप भी । यहाँ आने पर असाताका उदय धीरे धीरे कम हुआ तथा उपचार भी अनुकूल हुआ इसलिए आरोग्य लाभ हो गया।
इटावा आठ दश दिन बड़ी व्यग्रतामे वीते। प्रवचन आदि बन्द था केवल आत्मशान्तिके अर्थ दैनंदिनीमें जब कभी दो चार वाक्य लिख लेता था । जैसे
आत्मपरिणतिको कलुपित होनेसे वचाओ, परकी सहायतासे किसी भी कार्यकी सिद्धि न होगी और न अकार्यकी सिद्धि होगी। जैसे शुद्धोपयोग निजत्वका साधक है वैसे ही रागढूप संमारके साधक हैं। मेरा न कोइ शत्र है और न मित्र है । मै स्वकीय परि
णति द्वारा स्वयं ही अपना शत्रु और मित्र हो जाता हूँ। • 'सबसे क्षमा मांगनेकी अपेक्षा अन्तरख क्रोधपर विजय प्राम करो। ऐसा वचन मत बोलो कि जिससे किसीको अन्तरग र पहुंचे। इसका तात्पर्य यह है कि अपने हृदयमै परको २५ पहुच ऐसा अभिप्राय न हो। वचनकी मधुरता और कटुकतासे उमरा यथार्थ तत्त्व अनुमित नहीं होता।
'लोक वञ्चनाके चक्रमें पड़े मानव उन शब्दोंसा व्यवहार करते हैं कि जिनसे लोग सममें यह बड़ा विरक्त है परन्तु उनमें विरगना