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मेरी जीवन गाथा
तबतक आत्मा विद्यमान रहती है जबतक इस आत्माकी परिणति नाना प्रकारकी होती रहती है । यदि यह व्यक्ति भावावेशमे आकर क्षुल्लकपद ग्रहण न करता और शक्तिके अनुसार चारित्रका पालन करता रहता तो यह अवसर न आता । मनुष्य वही है जो किसी चातको श्रवणकर उसपर पूर्वापर विचार करे । संसार एक विचित्र जाल है । इस जाल में प्रायः सभी फंसे हैं। जो इससे निकल जावे, प्रशंमा उसीकी है । जालमे फंसनेका सबसे प्रबल कारण बुद्धि और ममबुद्धि है । इस जीवको अनादि कालसे यह अहंकार लगा हुआ है कि मैं एक विशिष्ट व्यक्ति हूँ, मेरे समक्ष अन्य सव तुच्छ । यह अहंकार ही मनुष्यकी प्रगतिमें सर्वाधिक वाधक है ।
कार्तिक कृष्णा ७ सं० २००८ से श्री नये मन्दिर में सिद्धचक्र विधानका पाठ हुआ । विधि करानेके लिए श्रीयुत पण्डित मुन्नालालजी इन्दौर से आये | आप उत्तम विधिसे कार्य कराते हैं । पहले व्याख्यान देते हैं, फिर क्रिया कराते हैं । आपका उच्चारण स्पष्ट और मधुर होता है | जनता प्रसन्न रहती हैं । मैं भी प्रारम्भके दिन १३ घण्टा मन्दिरमें रहा । पाठ सुनकर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ । यदि व्यवहार धर्मका प्रयोजन यथार्थ दर्शाया जावे तो उसका श्रोतागणोंपर उत्तम प्रभाव पड़ता है । जो वक्ता तत्त्वको यथार्थ नहीं दिखा सकते वह श्रोताओंके भी समयको लेते हैं और अपना भी समय प्रायः खो देते हैं । आजकल व्यवहारधर्मकी प्रभुता हैं । अन्तरङ्गकी ओर अणुमात्र भी दृष्टि नहीं, अन्यथा उस ओर लक्ष्य अवश्य जाता । वाह्य द्रव्यसे आजतक किसीका कल्याण न हुआ और न होगा । जबतक हमारी निर्वलता है तवतक यह पर द्रव्य हमारे लिए जो जो करे अल्प है ।