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मेरी जीवन गाथा आगममे मिथ्यादृष्टि जीवोंको पापी जीव कहा है। चाहे वह किसी वर्णका हो । हाँ, चरणानुयोगकी अपेक्षा जो देव, गुरु और शास्त्रकी श्रद्धा रखता है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। वाह्यमे जिसके चरणानुयोगके अनुकूल व्रत हैं उसे व्रती कहते हैं। चरणानुयोगके सिद्धान्तका व्यवहारमें उपयोग नहीं। व्यवहारमे उपयोग न हो, परन्तु अन्त. रङ्गकी निर्मलताका बाह्यमे नियमसे असर पड़ता है । जिस व्याघ्रीने सुकोशल स्वामीके उदरको विदारण किया उस समय उसका परिणाम अति मलिन था-आर्तरौद्र परिणामके वशीभूत हो वह दया का भाव विलकुल भूल गई। उसके उदर विदारणसे स्वामीके किञ्चित् भी अन्यथा वृत्ति नहीं हुई। उन्होंने तो क्षपकश्रेणी द्वारा केवलज्ञान उत्पन्न किया। उसी समय देव लोग उनकी पूजा करने आये तथा कीर्तिधर स्वामी जो उनके पिता थे, दैवयोगसे वहाँ आ गये। उन्होंने उस व्यात्रीको समझाया कि जिस पुत्रके वियोगमे मरकर व्याघी हुई उसीका उदर विदारण किया यह सब मोहका माहात्म्य है । मुनिके वाक्य श्रवणकर व्याघ्री एकदम शिर धुनने लगी। यह देख मुनिने कहा कि व्यर्थ शोकको त्याग । संसारकी यही दशा है, यही भवितव्य था, शान्तभाव धारणकर आत्मकल्याणके मार्गमें अपनेको तन्मय कर दे। उसने मुनि मुखारविन्दसे अनुपम उपदेश सुन एक दम संन्यासमरणकी प्रतिज्ञा कर ली और अन्तमें स्वर्ग गई। ऐसे अनेक उदाहरण आगममें मिलते हैं परन्तु हम लोग इतने स्वार्थी हो गये कि विरले तो यहाँ तक कह देते हैं कि यदि इनका सुधार हो जायगा तो हमारा कार्य कौन करेगा? लोकमें अव्यवथा हो जायगी, अतः इनको उच्च धर्मका उपदेश ही नहीं देना चाहिये। जगत्में इतना स्वार्थ फैल गया है कि जिनके द्वारा हमारा सर्व व्यवहार बन रहा है उन्हींसे हम घृणा करते हैं। कबीरदास एक साधु हो गया।