________________
३६
मेरी जीवन गाथा
बहुत दुर्बल होगया हूं, क्योंकि मेरी यह दृढ़ श्रद्धा है कि मैं जो कहता हूं उसका स्वयं तो पालन नहीं करता अन्यसे क्या कहूं ? यही कारण है कि मैं उपदेशमे संकोच करता हूं। वास्तवमे वही आत्मा सुखका पान हो सकता है जो कथनपर आरूढ़ होता है। न तो हम स्वयं तद्रूप होनेकी चेष्टा करते हैं और न अन्य पर उसका प्रभाव डाल सकते हैं। इसका मूल कारण केवल कपायकी कृशताका अभाव है। उस आत्माको ही उपदेश देनेका अधिकार है जो स्वयं मार्गपर चले। केवल शब्दोंकी मधुरता और सरलता अन्य पर प्रभाव नहीं डाल सकती । उचित तो यह है कि हमें इस वातका प्रयत्न करना चाहिये कि हम प्रथम उस पर अमल करें अनन्तर परको वतानेकी चेष्टा करें तभी सफल हो सकते हैं। प्रतिदिन सुन्दर विचार आत्मामे आते हैं परन्तु उन पर आरूढ़ नहीं होते अतः जैसे आये वैसे न आये, कुछ लाभ नहीं। केवल कथावादसे कोई लाभ नहीं, लाभ तो उस पर हृदयसे अमल करनेमे है। देहलीस पं० राजेन्द्रकुमार जी शास्त्री आ गये और पं० चन्द्रमौलि जा हमारे साथ ही थे। आप लोगोंके भी उत्तम व्याख्यान हुए। परन्तु स्वभावमे परिवर्तन होना कठिन है। स्वभावसे तात्पर्य पर निमित्तक भावोंसे है। अनादिकालसे हमारी प्रवृत्ति आहारादि संज्ञाओम हा रही हैं। प्रात्माका स्वभाव ज्ञायक भाव है। ज्ञायक भावमे ज्ञयका अनुभव होना ही कष्टकर है।
अलीगढ़से चलकर वागके मन्दिरमे आये। वहां १ घण्टा रहे। हकीम इन्द्रमणि जीने व्याख्यान दिया। यहांसे चलने पर विजलीवालोंने वहुत रोका पर हम लोग नहीं रुके। लोगोंमे भक्ति बहुत है परन्तु भक्ति जिसकी की जाती है वह पात्र नहीं, वेषमात्र हैं। कुछ भी हो, अलीगढ़का पहला वैभव चलते चलते आँखोंके सामन भूलने लगा।