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पर्व प्रवचनावली
३६६ वचनोंमे वल सत्यभाषणसे ही आता है, असत्य भापणसे नहीं। एक सत्यभाषण ही मनुष्यकी अन्य पापोंसे रक्षा कर देता है ।
एक राजपुत्रको चोरीकी आदत पड़ गई। जब राजाको उसका व्यवहार सह्य नहीं हुआ तब उसने घरसे निकाल दिया। अब वह खुले रूपमें चोरी करने लगा। एक दिन उसने किन्ही मुनिराजके उपदेशसे प्रभावित होकर असत्य वोलनेका त्याग कर दिया। अब वह एक राजाके यहाँ चोरी करनेके लिये गया। पहरे पर खड़े लोगोने पछा कि कहाँ जाते हो ? उसने कहा चोरी करनेके लिए जाता हूँ। राजपुत्र था इसलिए शरीरका सुन्दर था। पहरे पर खड़े लोगोंने सोचा कि यह कोई महापुरुष राजाका स्नेही व्यक्ति है। कहीं चोर यह कहते नहीं देखे गये कि मै चोरीके लिए जाता हूँ। यह तो हम लोगोंसे हँसी कर रहा है। ऐसा विचारकर उन्होंने उसे रोका नहीं। चोरी करनेके बाद वह वहीं एक स्थानपर सो गया। प्रातःकाल जब लोगोंकी दृष्टि पड़ी तब उससे पूछा गया तो उसने यही कहा कि मैं चोर हूँ, चोरी करनेके लिए आया हूं। फिर भी लोगोंको विश्वास नहीं हुआ। राजपुत्र सोचता है कि देखो सत्य वचनमे कितना गुण है कि चोर होने पर भी किसीको विश्व.स ही नहीं होता कि में चोर हूँ। जव एक पापके छोड़नेमें इतना गुण ह तब समस्त पापोंके छोड़नेमे कितना गुण न होगा? यह विचार कर उसने मुनिराजके पास जाकर समस्त पापोंका परित्यागकर दीक्षा धारण करली । अस्तु,
मैं आज तक नहीं समझा कि असत्य भी कुछ है क्योंकि जिसे आप असत्य कहते हैं वह वस्तु भी तो आत्मीय स्वरूपसे सत् है। तब मेरी बुद्धिमे तो यह आता है कि जो पदार्थ आत्माको दुःखकर हो उसको त्यागना ही सत्य है। जैसे शरीरको आत्मा मानना असत्य है। शरीर असत्य नहीं है किन्तु जिस रूपसे
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