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________________ सिद्ध चक्र विधान विचार करो तो यहाँ दुःखका कारण क्या है ? उस जीवके हृदयमे स्त्रीके प्रति जो रागभाव था और मोहके कारण जो वह स्त्रीको सुखका कारण मान रहा था वही तो दुखका कारण था। यदि उसके हृदयमे यह भाव दृढ़ होता कि सुख हमारी आत्माका गुण है स्त्री उसका कुछ सुधार विगाड़ नहीं कर सकती तो उसके मरने पर उसे दुःख नहीं होता। इस तरह मोह जन्य कलुषित परिणतिके कारण यह जीव द्रव्य कर्मोंको ग्रहण करता है और उसके उदयमे पुनः कलुपित परिणति करता है। जिन्होंने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके द्वारा इस विपरीत परिणतिको दूर कर पर द्रव्यसे अपना सम्बन्ध छुड़ा लिया है वे सिद्ध कहलाते हैं। जीवकी यह अचिन्त्य अव्यावाधत्व आदि गुणोंसे युक्त आत्यन्तिक अवस्था है। सिद्ध चक्रका पाठ स्थापित करनेका भाव यही है कि हम उनके गुणोंका स्मरण कर इस वातका प्रयत्न करें कि हम भी उनके समान हो जावें। उनके गुण गानमे ही समय यापन किया और उन जैसी अवस्था हमारी न हो सकी तो इससे क्या लाभ हुआ ? आठ दिन तक विधि पूर्वक यह पाठ चला, श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके दिन हवन पूर्ण हुआ। इस आयोजनमे पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियोंका जमाव अधिक रहता था। पुरुष वर्गकी श्रद्धा न हो सो बात नहीं परन्तु उन्हे व्यवसाय सम्बन्धी कार्यों में व्यस्त रहनेके कारण अवसर कम प्राप्त हो पाता था। मैंने इन दिनोंमें प्रवचनके अतिरिक्त जन संपर्कसे दूर रहनेका प्रयास किया और निरन्तर यह विचार किया और कार्यकी छोड़ो श्राशा श्रातम हित कर भाई रे ! यही सार जगतमें है उत्तम अन्य सकल भव जाला रे !
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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