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दिल्लीकी ओर बात है। धर्म जीवका स्वच्छ स्वभाव है जिसका उदय होते ही
आत्मा कैवल्यावस्थाका पात्र हो जाती है। मोक्ष, आत्माकी केवल परिणतिको कहते हैं। उसके अर्थ ही यावत् प्रयास है। यदि उसका लाभ न हुआ तो सर्व प्रयास विफल है। अगले दिन यहाँसे ४ मील चलकर बावली आ गये। यह ग्राम बहुत बड़ा है । मन्दिर भी यहाँका विशाल है । यहाँ श्री शान्तिनाथकी मूर्ति अत्यन्त मनोहर और आकर्षक है, परन्तु मूतिके अनुरूप स्थान नहीं। यहाँ पर परस्पर मनोमालिन्य बहुत है और वह इतना विकृत हो गया है कि जिसमे हानिकी सम्भावना है। वहुतसे मनुष्य ऐसे होते हैं जिन्हे कलह ही प्रिय होता है। जनता उनके पक्षमें आजाती है। सद्सद्विवेक होना अत्यन्त कठिन है। शास्त्रका अध्ययन करनेवाले जब इस विषयमे निष्णात नहीं तव अज्ञानी मनुष्य तो अज्ञानी ही हैं।
अपाढ़ वदी ५ सं० २००६ को बावलीसे चलकर बड़ौत आ गये । यह नगर अच्छा है, व्यापारका केन्द्र है। ५०० घर दिगम्बर जैनोंके हैं। २ मन्दिर हैं। बड़ी शानसे स्वागत किया। कालेज भवनमे वहुत भीड़ थी। व्याख्यानका प्रयास बहुत लोगोंने किया, परन्तु कोलाहलके कारण कुछ असर नहीं हुआ। हमने भी कुछ बोलना चाहा, परन्तु कुछ बोल न सके। लोगोंका कोलाहल और हमारी वृद्धावस्था इसके प्रमुख कारण थे। कालेजकी विल्डिंग बहुत बड़ी है । किराया अच्छा आता है। दूसरे दिन प्रातःकाल प्रवचन हुआ, भीड़ बहुत थी। अव शास्त्रकी प्रणालीसे शास्त्र होता नहीं, क्योंकि जनता अधिक आती है और शोरगुल वहुत होता है। इस स्थितिमे यथार्थ वात तो कहने में आती नहीं, केवल सामाजिक वातोंमे शास्त्रका प्रवचन होने लगता है। समाजमें विद्वान् वहुत हैं तथा व्याख्याता भी उत्तम हैं, किन्तु वे स्वयं अपने ज्ञानका