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मेरी जीवन गाथा
महापुरुषोंकी मति भ्रष्ट कर देता है । परिग्रहकी मूर्च्छा इतनी प्रवल है कि आत्माको आत्मीय ज्ञानसे वञ्चित कर देती हैं । कहाँ तक लिखा जावे ? जब तक इसका सद्भाव है तब तक आत्मा यथा ख्यातचारित्रसे वञ्चित रहती है। अविरत अवस्थासे पार होना कठेन है ।
आषाढ़ वदी १ सं० २००६ को विट्ठलसे ५ मील चलकर छपरौली आ गये । यहाँ पर १०० घर जैनधर्मवालोंके हैं जिनमे ५० घर मन्दिरमागीँ दिगम्बर आम्नायवालोंके हैं और शेष स्थानकवासियोंके हैं । पञ्चम कालका माहात्म्य है कि इस निर्मल धर्ममे भी पन्थोंकी उत्पत्ति गई। शान्तिका मार्ग तो मिथ्याभिप्राय के त्यागने से होता है, परन्तु उस ओर दृष्टि नही । दृष्टिको शुद्ध बनाना ही आत्माके कल्याणका मूल मार्ग हैं। हमारी भूल ही हमारे संसार परिभ्रमणका कारण है । बहुत विचार करनेके बाद हमने तो यह निश्चय किया कि अपनी अन्तरङ्ग की परिणति निर्मल करना चाहिये । पर पदार्थों के गुण दोपों की समालोचनाकी अपेक्षा आत्मीय परिणतिको निर्मल करना बहुत लाभदायक है । देवपूजा करनेका तात्पर्य यह है कि आत्माकी परिणति निर्मल होनेसे यह दशा आत्माकी हो जाती है। अर्थात् आत्मा देव पदको प्राप्त हो जाता है । मेरी आत्मा भी यदि इनके कथित मार्गपर चलनेकी चेष्टा करे तो कालान्तरमे हम भा तत्तुल्य हो सकते हैं, परन्तु हमारी प्रवृत्ति अत्यन्त निन्द्य है ।
छपरोलीसे ४ मील चलकर नगला आये । यहाँ १५ घर जैनियोंके हैं । सब दिगम्बर सम्प्रदायके हैं । १ मन्दिर है, स्वच्छ है, २ वेदिकाएँ हैं, १ काली मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ हैं । यहाँ जाट लोग बहुत हैं, प्रायः सम्पन्न हैं । प्रवचनमें सब लोग आये । श्राज क्ल लोगों के हृदय धार्मिक संघर्षका जोर प्रायः कम हो गया हैं और लोग प्रेम से एक दूसरे की बात सुनने को तैयार हैं "यह प्रसन्नताकी