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________________ ૨ मेरी जीवन गाथा महापुरुषोंकी मति भ्रष्ट कर देता है । परिग्रहकी मूर्च्छा इतनी प्रवल है कि आत्माको आत्मीय ज्ञानसे वञ्चित कर देती हैं । कहाँ तक लिखा जावे ? जब तक इसका सद्भाव है तब तक आत्मा यथा ख्यातचारित्रसे वञ्चित रहती है। अविरत अवस्थासे पार होना कठेन है । आषाढ़ वदी १ सं० २००६ को विट्ठलसे ५ मील चलकर छपरौली आ गये । यहाँ पर १०० घर जैनधर्मवालोंके हैं जिनमे ५० घर मन्दिरमागीँ दिगम्बर आम्नायवालोंके हैं और शेष स्थानकवासियोंके हैं । पञ्चम कालका माहात्म्य है कि इस निर्मल धर्ममे भी पन्थोंकी उत्पत्ति गई। शान्तिका मार्ग तो मिथ्याभिप्राय के त्यागने से होता है, परन्तु उस ओर दृष्टि नही । दृष्टिको शुद्ध बनाना ही आत्माके कल्याणका मूल मार्ग हैं। हमारी भूल ही हमारे संसार परिभ्रमणका कारण है । बहुत विचार करनेके बाद हमने तो यह निश्चय किया कि अपनी अन्तरङ्ग की परिणति निर्मल करना चाहिये । पर पदार्थों के गुण दोपों की समालोचनाकी अपेक्षा आत्मीय परिणतिको निर्मल करना बहुत लाभदायक है । देवपूजा करनेका तात्पर्य यह है कि आत्माकी परिणति निर्मल होनेसे यह दशा आत्माकी हो जाती है। अर्थात् आत्मा देव पदको प्राप्त हो जाता है । मेरी आत्मा भी यदि इनके कथित मार्गपर चलनेकी चेष्टा करे तो कालान्तरमे हम भा तत्तुल्य हो सकते हैं, परन्तु हमारी प्रवृत्ति अत्यन्त निन्द्य है । छपरोलीसे ४ मील चलकर नगला आये । यहाँ १५ घर जैनियोंके हैं । सब दिगम्बर सम्प्रदायके हैं । १ मन्दिर है, स्वच्छ है, २ वेदिकाएँ हैं, १ काली मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ हैं । यहाँ जाट लोग बहुत हैं, प्रायः सम्पन्न हैं । प्रवचनमें सब लोग आये । श्राज क्ल लोगों के हृदय धार्मिक संघर्षका जोर प्रायः कम हो गया हैं और लोग प्रेम से एक दूसरे की बात सुनने को तैयार हैं "यह प्रसन्नताकी
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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