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दिल्लीकी ओर
नाममात्रके जैन हैं । सायंकालको सभा हुई जिसमे अष्टमूल गुण आदिके व्याख्यान हुए । यहाँसे ६ मील चलकर कैराना आये । यहाँ पर ४० घर जैनियोंके हैं । प्रायः सम्पन्न हैं, सरल हैं, स्वाध्याय और पूजनका अच्छा प्रबन्ध है । यहाँ जैनियों के
अनेक बालक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघमे हैं, परन्तु संघका उद्देश्य क्या है किसीको पता नहीं । देशमे सर्वत्र इनका प्रचार है । कुछ उनसे पूछो बताते नहीं। केवल देशका भला हो यह कह देते हैं । वास्तव वात कुछ बताते नहीं । भारतवर्ष ऋषिभूमि रही, परन्तु अव तो यहाँके मनुष्य कामलोलुप हो गये । प्रवचनमे बहुत लोग आये । प्रवचनका सार यही था कि ज्ञानका विपरीत अभिप्रायसे 'मुक्त हो जाना सम्यग्दर्शन है, पदार्थको जानना सो सम्यग्ज्ञान है और कर्मवात करना चारित्र है । इस तरह ज्ञान ही सम्यग्दर्शनादि तीन रूप है - विद्यानन्द स्वामीने यही बात श्लोकवार्तिकमे कही है
मिथ्याभिप्रायनिमुक्तिर्ज्ञानस्येष्ट हि दर्शनम् । ज्ञानत्वमर्थविज्ञप्तिश्चर्यात्वं कर्महन्तृता ॥
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भोजन अन्तराय तथा पैरमें मोच आ जानेके कारण एक दिन यहाँ और रुकना पड़ा । शरीरकी दशा पतनोन्मुख है फिर भी हम वाह्य आडम्बरमे उलझ रहे हैं यह दुःखकी बात है । उचित तो यह है कि धर्म साधनमे सावधान रहें । धर्म साधनका अर्थ यह है कि परिणामोंकी व्यग्रतासे रक्षा हो । धर्म मानें वाह्य क्रिया नहीं । किन्तु हम अज्ञानी लोगोंने वाह्य क्रियामें धर्म मान रक्खा है । आज यहाँसे जाना था, परन्तु किट्ठलके मनुष्यों मे परस्पर रात्रिको वैमनस्य हो गया । वैमनस्यका कारण पाठशालाके अर्थ चन्दा था । परमार्थसे पूछा जावे तो संसारमे दुःखादिका कारण परिग्रह पिशाच है । यह जहाँ आया वहाँ अच्छे-अच्छे