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मेरी जीवन गाथा प्रसिद्ध मौलवीने २ आम भोजनके लिये दिये। लोगोंने बहुत टिप्पणी की, परन्तु मैंने उन्हें आहारमें ले लिया, खेद इसका है कि लोग बिना शिर-पैरकी टीका-टिप्पणी करते हैं। यदि ये ही आम किसी मुसलमानकी दुकानसे लाये होते तो ये लोग टीकाटिप्पणी न करते । अस्तु, लोग अपने अभिप्रायके अनुसार टीकाटिप्पणी करते हैं। हमको उचित है कि उससे भय न करें । पापसे भयभीत रहे। किसीके प्रति अन्यथा न विचारें। जो होना है होगा इसमे खेद किस वात का ? मेरा तो वार-बार यही लक्ष्य रहता है कि आत्माकी निर्मलता ही सुखका कारण है और सुख ही शान्तिका उपाय है। उपाय क्या ? सुख ही शान्ति है । इधर प्रवचनमे अजैन लोग भी बहुत आते हैं और जैनधर्मके मर्मको श्रवण कर प्रसन्न भी होते हैं। आत्मा अनादि अनन्त है यह सवको मान्य है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आत्मा कूटस्थ रहे परिणाम विना परिणामी नहीं और परिणामी बिना परिणाम नहीं, अत यह मानना सर्वथा उचित है कि आत्मा न तो सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य है, किन्तु नित्यानित्यात्मक है।
( २ ) जेठ सुदी १० सं० २००६ को ५ बजे प्रात कांदलासे चलकर नंगेरु या गये । यहाँ पर १ मन्दिर है। ४० घर जैनियोंक है। मन्दिरमागी हैं। इनके अतिरिक्त ४० घर म्थानकवासियोंके है ! ये लोग मूर्तिको नहीं मानते है। पालम्बनके बिना धर्मका कोट श्राचार इनमें नहीं है और न धर्मका स्वरूप ही समगते है।