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मेरी जीवन गाथा पूर्ण हों तो उन्हें त्याग दो। इसमे कोई भी आपत्ति नहीं परन्तु अव तो प्राचीन महात्माओंकी वात सुननेसे मनुष्य उबल उठते हैं। मेरा तो विश्वास है कि परिग्रहके पिशाचसे पीड़ित आत्मा कितने ही ज्ञानी क्यों न हों उनके द्वारा जो भी कार्य किया जावेगा उससे कदापि साधारण मनुष्योंको लाभ नहीं पहुंच सकता क्योंकि वे स्वयं परिग्रहसे पीड़ित हैं। प्राचीन समयमें वीतराग साधुओंके द्वारा संसारमात्रकी भलाईके नियम बनाये जाते थे अतः जिन्हें संसारके कल्याण करनेकी अभिलाषा है वे पहले स्वयं सुजन बनें। सुजन मायने भले मानुष । भले मानुषका अर्थ है जिनका आचार निर्मल हो । निर्मल आचारके द्वारा वे आत्मकल्याण भी कर सकते हैं और उनके आचारको देखकर संसारी मनुष्य स्वयं क्ल्याण कर सकता है। यदि पिता सदाचारी है तो उसकी संतान स्वयं सदाचारी बन जाती है। यदि पिता वीड़ी पीता है तो वेटा सिगरेट पीवेगा और पिता भंग पीता है तो बेटा मदिरा पान करेगा इसलिए निर्मल आचारके धारक सुजन वनो तथा निश्छल प्रवृति करो। ' आपने तृतीयाध्यायमे नरक लोकका वर्णन सुना, वहाँके स्वाभाविक तथा परकृत दुःखोंका जव ध्यान आता है तब शरीरम रोमाञ्च उठ आते हैं। हृदयमे विचार करो कि इन दुःखोंका मूल कारण क्या है ? इन दुःखोंका मूल कारण मिथ्यात्वकी प्रबलता है। मिथ्यात्वकी प्रबलतासे यह जीव अपने स्वभावसे च्युत हो पर पदार्थोंको सुखका कारण मानने लगता है इसीलिये परिग्रहमे तथा उसके उपार्जनमें इसकी आसक्ति बढ़ जाती है और यह परिग्रह तथा प्रारम्भ सम्बन्धी आसक्ति ही इस जीवको नरक दुःखाका पात्र बना देती है। नरक गतिमे यह जीव दश हजार वर्षसे लेकर तेतीस सागर तक विद्यमान रहता है। वहाँसे असमयमे निकलना