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________________ पर्व प्रवचनावली ३५६ भी नहीं होता अर्थात् जो जीव जितनी आयु लेकर नरकमे जहाँ पहुँचता है उसे वहाँ उतनी आयु तक रहना ही पड़ता है। नरक दुःखका कारण है परन्तु वहाँ भी यदि किन्हीं जीवोंकी काललब्धि आजाती है तो वे सम्यग्दृष्टि बन जाते हैं। सम्यग्दृष्टि बनते ही उनकी अन्तरात्मा आत्मसुखका स्वाद लेने लगती है। चिन्मूरति दृग्धारीकी मोहि रीति लगत है अटापटी। वाहर नारक कृत दु ख भोगे अन्तर सुख रस गटागटी॥ सम्यग्दर्शन हो जाने पर भी नारकी बाह्यमें यद्यपि पूर्वकी भॉति ही दुःख भोगता है तथापि अन्तरङ्गमे उसे मोहाभाव जन्य सुखका अनुभव होने लगता है। वह समझता है कि नारकियोंके द्वारा दिया हुआ दुःख हमारे पुराकृत कर्मोंका फल है जिसे भोगना अनिवार्य है परन्तु यह दुःख हमारा निज स्वभाव नहीं है। मेरा निज स्वभाव तो चैतन्यमूर्ति तथा अनन्त सुखका भण्डार है। मोहके कारण मेरा यह स्वभाव वर्तमानमे अन्यथा परिणमन कर रहा है पर जब मोहका विकार आत्मासे निकल जायगा तब आत्मा निजस्वभावमे लीन हो जायगा। मध्यम लोकके वर्णनसे यह चिन्तवन करना चाहिये कि इस लोकमे ऐला कोई स्थान नहीं बचा जिसमें मैं अनन्त वार उपजा मरा न होऊँ । धर्म रूढ़ि नहीं है प्रत्युत आत्माकी निर्मल परिणति है। - जीवनमे उतारनेसे ही आत्माका कल्याण हो सक्ता है।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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