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आज शौचधर्म है। शौचका अर्थ पवित्रता है। यह पवित्रता लोभ कषायके अभावसे प्रकट होती है। लोभके कारण ही संसारके यावन्मात्र प्राणी दुखी हो रहे हैं। आचार्य गुणभद्रने आत्मानुशासनमे लिखा है
श्राशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् ।
कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयषिता ॥ अर्थात् यह आशारूपी गर्त प्रत्येक प्राणीके सामने खुदा है । ऐसा गर्ने कि जिसमे समस्त संसारका वैभव परमाणुके समान है। फिर किसके भागमे कितना आवे अतः विषयोंकी वाञ्छा करना व्यर्थ है। इस आशारूपी गर्तको जैसे-जैसे भरा जाता है वैसे-वैसे ही यह गहरा होता जाता है। पृथिवीके अन्य गर्त ता भर देनेसे भर जाते हैं पर यह आशागर्त भरनेसे और भी गहर हो जाता है। किसी आदमीको हजारकी आशा थी, हजार उसे मिल भी गये पर अव आशा दश हजारकी हो गई। अर्थात् आशारूपी गर्त पहलेसे दशगुना गहरा हो गया। भाग्यवश दश हजार भी मिल गये पर अव एक लाखकी आशा हो गई। अर्थात् आशागर्त पहलेसे सौ गुना गहरा हो गया। यह केवल कहनेकी वात नहीं है। इसे आप लोग रात दिन अपने जीवनमें उतार रहे हैं। तृष्णाके वशीभूत हुया प्राणी क्या-क्या नहीं करता है ? वह इष्टसे इष्ट व्यक्तिका प्राणान्त करनेमे भी पीछे नहीं हटता । आजका मानव निरन्तर "और और' चिल्लाता रहता है। उसके मुखसे कभी 'वस' नहीं निकलता। विना सन्तोषके वस कैसे निकले ?