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पर्व प्रवचनावली
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सुख और दुःखके होनेपर हर्ष और विषाद भावके पात्र नहीं होते । वे उन कार्योंको कर्मकृत जान उनसे उपेक्षित रहते हैं । वे जो दानादि करते हैं उनमे भी उनके प्रशंसादिके भाव नहीं होते । यही कारण हैं कि वे अल्प कालमे संसारके दुःखोंसे बच जाते हैं ।
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सुजनताकी गन्ध भी मनुष्यके लग जावे तो वह अधर्म कार्यों से चच जावे | वर्तमान युगमे मनुष्य प्राय विपयलम्पटी हो गये हैं । इससे सम्पूर्ण संसार दुःखमय हो रहा है । पहले मनुष्य विद्यार्जन इसलिये करते थे कि हम संसारके कष्टोंसे बचें तथा परको भी वचावें । हमारे संचयमे जो वस्तु हो उससे परको भी लाभ पहुँचे । पहलेके लोग ज्ञानदान द्वारा अज्ञानीको सुज्ञानी बनानेका प्रयत्न करते थे परन्तु अब तो विद्याध्ययनका लक्ष्य परिग्रह पिशाचके अर्जुनका रह गया है । यह बात पहले ही लक्ष्यमें रखते हैं कि इस विद्याध्ययनके बाद हमको कितना मासिक मिलेगा ? पारलौकिक लाभका लक्ष्य नहीं । पाश्चात्य विद्याका लक्ष्य ही यह है कि विज्ञानके द्वारा ऐसे ऐसे आविष्कार करना जो किसी तरह द्रव्य का अर्जन हो, प्राणियोंका संहार हो, सहस्रों जीवोंका जीवन खतरे मे पड़ जावे । ऐसे आविष्कार किये जावें कि एक अणुवमके द्वारा लाखों मनुष्योंका स्वाहा हो जावे । अथवा ऐसे ऐसे सिनेमा दिखाये जावें । यद्यपि कोई कोई सिनेमा भलाईके हैं तो भी वे विप मिश्रित भोजनके समान हैं । अस्तु, यह सब इस निकृष्ट कालकी महिमा है । इस युग मे भी कई ऐसे सुजन हैं जो इन उपद्रवोंसे सुरक्षित हैं और उन्हीं के प्रतापसे आज कुछ शान्ति देखी जाती है । जिस दिन उन महात्माओं का अभाव हो जायगा उस दिन सर्वत्र ही अराजकताका साम्राज्य हो जावेगा । आजकल प्राचीन आर्यपद्धति के पराम्परागत नियमोंकी अवहेलना की जाती हैं और नये नये नियमोंका निर्माण किया जा रहा है । प्राचीन नियम यदि दोप