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मेरी जीवद गाया कैसा शान्त तपस्वी बैठा है ? उसी समय एक मच्छकी आवाज
आती है कि महाराज! उसकी शान्त वृत्तिका हाल तो मुझसे पूछिये । फहनेका तात्पर्य यह है कि मनुष्य येन केन प्रकारेण अपना ऐहिक प्रयोजन सिद्ध करना चाहते हैं पर पारलौकिक प्रयोजनकी ओर उनकी दृष्टि नहीं है। साँप लहराता हुआ चलता है पर वह जर अपने विलमें घुसने लगता है तब उसे सीधा ही चलना पड़ता है। इसी प्रकार मनुष्य जब स्वरूपमे लीन होना चाहता है तब उसे सरल व्यवहार ही करना पड़ता है। सरल व्यवहारका बिना स्वस्थभावमे स्थिरता कहाँ हो सकती है ?
जहाँपर स्वस्वभावरूप परिणमन ह वहाँ पर कपटमय व्यवहार नहीं और जहाँ कपट व्यवहार है वहाँ स्वस्वभाव परिणमनमे विरार हे । इसीसे इसको विभाव कहते हैं। विभाव ही संसारका कारण है। प्रायः संसारमे प्रत्येक मनुष्यकी यह अभिलापा रहती है कि मैं लोगोंके द्वारा प्रशंसा पाऊ-लोग मुझे अन्दा मममें नही भाव जीवके दुःखके कारण हैं। ये भाव जिनके नहीं होते व ती जन हैं। उनके जो भी भाव होते हैं वही मुम्बभाव बहलाने हैं। जिन जीवोंके अपने क्याय पोरणके परिणाम नहीं यही सुजन है। उनरी जो परिणति है वही सुजनता है। यहाँ तक उनी निर्मल परिलनि होजाती है कि वे परोपकारादि करके भी अपनी प्रगमा नी चारकिसी कार्यके का नहीं बनते। मेरा तो विश्वास है शिकार पुरुष पुण्यको यन्धका कारण मानते हैं। यदि उसे नाव : नलममतेनो उसके कर्तृत्वको श्यों न मानने ? - सांग विपयादि कार्य भी चल्न परते है परन्तु उम्मे शिश" जो पुण्य कार्य करने भी पेक्षा वेपार तो करें यह अद्विमें नहीं माना। मुजन मनुषती मेटा ' उनका जो भी कार्य में यह लग" मी