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पर्व प्रवचनावली
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महान् बननेकी आकांक्षाने उनकी आत्माको मायाचारसे भर दिया और उसका परिणाम क्या हुआ सो आप जानते हैं। मनुष्य अपने पापको छिपानेका प्रयत्न करता है पर वह रुईमे लपेटी श्रागके समान स्त्रयमेव प्रकट हो जाता है । किसीका जल्दी प्रकट हो जाता है और किसीका विलम्बसे पर यह निश्चित है कि प्रकट अवश्य होता है । पापके प्रकट होनेपर मनुष्यका सारा बड़प्पन समाप्त हो जाता है और छिपानेके कारण संक्लेश रूप परीणामोंसे जो खोटे कर्मोंका आस्त्रत्र करता रहा उसका फल व्यर्थ ही भोगना पड़ता है । बाँकी जड़, मेढ़े के सींग, गोमूत्र तथा खुरपीके समान माया चार प्रकारकी होती है । यह चारों प्रकारकी माया दुःखदायी है । मायाचारी मनुष्यका कोई विश्वास नहीं रखता और विश्वासके न होनेसे उसे जीवन भर कष्ट उठाना पड़ते हैं । जब कि सरल मनुष्य उसके विरुद्ध अनेक सम्पत्तियों का स्वामी होता है । आपने पूजामे पढ़ा होगा
कपट न कीजे कोय चोरनके पुर ना बसै । सरल स्वभावी होय ताके घर बहु सम्पदा
अर्थात् किसीको कपट नहीं करना चाहिये क्योंकि चोरोंके कभी गाँव वसे नहीं देखे गये । जीवन भर चोर चोरी करते हैं पर अन्तमे उन्हें कफनके लिये परमुखापेक्षी होना पड़ता है । इसके विपरीत सरल मनुष्य अधिक सम्पत्तिशाली होता है । मायासे मनुष्यकी सब सुजनता नष्ट हो जाती है। मायावी मनुष्य ऐसी मुद्रा बनाता है कि देखनेमें बड़ा भद्र मालूम होता है पर उसका अन्तःकरण अत्यन्त कलुषित रहता है । वनवास के समय जब रामचन्द्रजी पम्पा सरोवरके किनारे पहुँचे तब एक बगला बड़ी शान्त मुद्रामें बैठा था । उसे देख रामचन्द्रजी लक्ष्मणसे कहते हैं कि लक्ष्मण | देखो