________________
६६
मेरी जीवन गाथा
एकत्रित करने में ज्ञान बढ़े, हमारी त्रयोदशी के दिन
।
यहाँ पर १० घर
मन्दिरों के सजाने तथा सोने चाँदीके उपकरणों के तो व्यय करते हैं पर जिनसे जैन सिद्धान्तोंका सन्तान सुवोध हो इस ओर उनका लक्ष्य नहीं वागपत से ३ मील चलकर टटेरीमण्डी आ गये । जैनियोंके तथा १ चैत्यालय है । चैत्यालय बहुत ही सुन्दर है । आज बहुत ही गर्मी रही । तृषाने बहुत सताया, परन्तु स्वप्नमे भी यह ध्यान न आया कि यह व्रत धारण करना उपयोगी नहीं । प्रत्युत यही विचार चित्तमे आया कि परिपह सहन करना ही तप है । आत्माकी अचिन्त्य शक्ति है । परिणामोंकी निर्मलतासे यह आत्मा अनायास ही संसारके बन्धन से विमुक्त हो सकता है । जहाँ तक बने अभिप्राय शुद्ध करनेकी महती आवश्यकता है ।
1
चतुर्दशीको टटेरी मण्डीसे ५३ मील चलकर खेखड़ा श्रा गये । यह ग्राम बहुत प्रसिद्ध है । इसमें बावा भागीरथजी प्रायः निवास करते थे । यहाँ लगभग २०० घर जैनियोंके है। लोगोंने बहुत स्वागतसे लाकर लाला उग्रसेनजीकी कोठीमे ठहराया था । ६ बजे मन्दिर गये । वहाँ पर बहुत जनता थी। मुझे लगा कि जनता धर्मकी पिपासु है, परन्तु धर्मका स्वरूप बतलानेवाले विरले हैं। मैं तो अपने आत्माको इस विपयमे प्रायः बहुत ही दुर्बल देख रहा हॅू। जहाँ तक बने परकी वञ्चना मत करो। परकी वञ्चना हो व मत हो, आपकी वञ्चना तो हो ही जाती है। आपकी वञ्चनाका यही अर्थ है कि आप वर्तमानमे जिस कपायसे दुखी होता है उसीका बीज फिर वो लेता है । श्रात्माको दुख देनेवाली वस्तु इच्छा है | वह जिस किसी विपयकी हो जब तक उसकी पूर्ति नहीं होती, यह जीव दुखी रहता है तथा आत्मा भी आगामी दुः पात्र हो जाता है । यह सब होने पर भी मनुष्य निज हित करनेमें संकुचित रहते हैं | केवल संसारकी वासनाएँ इन्हें सताती रहती हैं।
I