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स्वर्णगिरिकी ओर आता । स्वाध्याय और उसके फलका विवेचन करते हुए मैंने कहावाचना और पृच्छना यह स्वाध्यायके अङ्ग हैं। स्वाध्याय संज्ञा तपकी है । तपका लक्षण इच्छा निरोध है अतएव तप निर्जराका कारण है। वैसे देखा जाय तो स्वाध्यायसे तत्त्वबोध होता है तथा सुननेवाला भी इसके द्वारा बोध प्राप्त करता है। बोधका फल न्याय ग्रन्थोंमे हानोपादानोपेक्षा तथा अज्ञाननिवृत्ति बतलाया है। जैसा कि श्री समन्तभद्र स्वामीने कहा है
उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधी ।
पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ।। यहाँ केवलज्ञानका फल उपेक्षा और शेप चार ज्ञानोंका फल हान और उपादान वहा है। अर्थात् हेयका त्याग और उपादेयका ग्रहण है। यहाँ पर यह आशंका होती है कि ज्ञान चाहे पूर्ण हो चाहे अपूर्ण हो उसका फल एक तरहका ही होना चाहिये। तब जो फल केवलज्ञानका है वही फल शेष चार ज्ञानोंका होना चाहिये। इसीसे श्री समन्तभद्राचार्यने शेष चार ज्ञानका फल वही लिखा है-'पूर्वा वा ।' यहाँ पर यह बात उठती है कि उपेक्षा तो मोहके अभावमें द्वादश गुणस्थानमें हो जाती है
और केवलज्ञान तेरहवें गुणस्थानमें होता है अतः केवलज्ञानका फल उपेक्षा उचित नहीं और शेष चार ज्ञानका फल आदान हान भी उचित नहीं क्योंकि आदान और हान मोहके कार्य हैं इससे ज्ञानका फल अज्ञान निवृत्ति ही है।
मौ से ४ मील चलकर असौना आये। यहाँ ३ घर जैनियोंके हैं, १ छोटा सा वरंडा है। उसीमे जिनेन्द्रदेवके ३ छोटे विम्ब हैं। ग्राम अच्छा है। यहाँपर गेंहूँ अच्छा उत्पन्न होता है। सब लोग सुखी हैं। हमारे साथ १० आदमी थे, ग्रामवासियों ने सवको