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________________ रक्षाबन्धन और पर्यपण २०३ पनपने देता । अस्तु रक्षावन्धन पर्व हमे सदा यही शिक्षा देता है कि 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' अर्थात् सव सुखी रहे । __ मैं कहनेके लिये तो यह सव कह गया पर सामायिकके वाद अन्तरङ्गमे जय विचार किया तब यही ध्वनि निकली कि परकी समालोचना त्यागो आत्मीय समालोचना करो। समालोचनामे काल लगाना भी उचित नहीं प्रत्युत वह काल उत्तम विचारोमें लगाओ। आत्माका स्वभाव ज्ञाता दृष्टा है वहो रहने दो उसमे इष्ट अनिष्ट कल्पनासे बचो। अनादि कालसे यही उपद्रव करते रहे पर सन्तुष्ट नहीं हुये। आत्म परिणतिको स्वच्छ रक्खो सो तो करता नहीं संसारका ठेका लेता है। जो मनुष्य आत्मकल्याणसे वञ्चित. हैं वे ही संसारके कल्याणमे प्रयत्न करते हैं। संसारमे यदि शान्ति चाहते हो तो सबसे पहले परमें निजत्वकी कल्पना त्यागो अनन्तर अनादिकालसे जो यह परिग्रह पिचाशके आवेशमे अनात्मीय पदार्थों से आत्महितका संस्कार है उसे त्यागो। हम आहारादि संज्ञाओंसे आत्माको तृप्त करनेका प्रयत्न करते हैं यह सर्व मिथ्या धारण है इसे त्यागो । संतोपका कारण त्याग है उसपर स्वत्व कल्पना करो। प्रतिदिन जल्पवादसे जगत्को सुलझानेकी जो चेष्टा है उसे त्यागो और आपको सुलझानेका प्रयत्न करो। संसारमे धर्म और अधर्म तथा खान और पान यही तो परिग्रह है । लोकमें जिसे पुण्य शब्दसे व्यवहृत करते हैं वह धर्म तुम्हारा स्वभाव नहीं संसारमें ही रखनेवाला है। धीरे धीरे पयूषण पर्व आ गया। चतुर्थीके दिन श्री पंडित झम्मनलालजी आ गये । पं० कमलकुमारजी यहाँ थे ही इसलिये ग्रवचनका आनन्द रहा । वृद्धावस्थाके कारण हमसे अधिक बोला नहीं जाता और न बोलने की इच्छा ही होती है । उसका कारण यह है कि जो बात प्रवचनमें कहता हूँ तदनुरूप मेरी चेष्टा नहीं। मैं
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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