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पर्व प्रवचनावली संसारमें परिग्रह पापकी जड़ है। वह जहाँ जावेगा वहीं पर अनेक उपद्रव करावेगा। करावे किन्तु जिन्हे आत्महित करना है वे इसे त्याग करें । त्याग परिग्रहका नहीं मूर्छाका होना चाहिये।।
कितने ही लोग ऐसा सोचते हैं कि अभी परिग्रहका अर्जन करो, पीछे दान आदि कार्योंमे व्यय कर पुण्यका संचय कर लेंगे परन्तु आचार्य कहते हैं कि 'प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्' अर्थात् कीचड़ धोनेकी अपेक्षा दूरसे ही उसका स्पर्श न करना अच्छा है। लक्ष्मीको अंगीकार कर उसका त्याग करना कहाँकी बुद्धिमानी है । कार्तिकेय मुनिने लिखा है कि वैसे तो सभी तीर्थङ्कर समान हैं परन्तु वासुपूज्य, मल्लि, नेमि, पाव और वर्धमान इन पाँच तीर्थङ्करोंमे हमारी भक्ति विशेष है क्यों कि इन्होंने संपत्तिको अङ्गीकृत ही नहीं किया, जब कि अन्य तीर्थङ्करोंने सामान्य मनुष्योंकी तरह सम्पत्ति ग्रहण कर पीछे त्याग किया। परिग्रहवालोंसे पूछो कि उन्हे परिग्रहसे कितना सुख है ? जिसके पास कुछ नहीं है वह सुखकी नींद तो सोता है पर परिग्रहवालोंको यह नसीव नहीं। ____एक गरीव आदमी था, महादेवजीका भक्त था । उसकी भक्तिसे प्रसन्न होकर एक दिन महादेवजीने कहा-बोल क्या चाहता है ? महादेवजीको सामने खड़ा देख बेचारा घबड़ा गया। बोलामहाराज! कल सवेरे माँग लूंगा। महादेवजी ने कहा-अच्छा। वह आदमी सायकलसे ही विचार करने वैठा कि महादेवजीसे क्या माँगा जाय । हमारे पास रहनेके लिये घर नहीं इसलिये यही माँगा जाय। फिर सोचता है जब महादेवजी मुंह मागा वरदान देनेको तैयार हैं तब घर ही क्यों माँगा जाय ? देखो ये जमींदार हैं, गाँवके समस्त लोगों पर रौब गाँठते हैं इसलिये हम भी जमींदार हो जायें तो अच्छा है । यह विचार कर उसने जमींदारी मांगनेका निर्णय किया । फिर सोचता है आखिर जब लगान भरनेका समय आता