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पर्व प्रवचनावली सदा जलाती रहती है इसलिये इससे बचनेके लिए सदा समताभावरूपी अमृतका सेवन करना चाहिये। यह संसारचक्र अनादि कालसे चला आ रहा है और सामान्यकी अपेक्षा अनन्त काल तक चलता रहेगा। पञ्चास्तिकायमे श्री कुन्दकुन्ददेवने लिखा है
गदिमधिगदस्स देहो देहादिदियाणि जायते । जो खलु ससारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो ॥ परिणामादो कम्मं कम्मादो गदिसु होदि गदी। गदिमधिगदस्स देहो देहादो इदियाणि जायते ॥ तेहिं दु विषयग्गहण तत्तो रागो व दोसो वा । जायदि जीवस्सेव भावो ससारचक्कवालम्मि ॥ इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिधणो सणिधणों वा। जो संसारमें रहनेवाले जीव हैं उनके स्निग्ध परिणाम होता है, परिणामोंसे कर्मका बन्ध होता है, कर्मसे जीव एक गतिसे अन्य गतिमे जाता है, जहाँ जाता है वहाँ देहग्रहण करता है, देहसे इन्द्रियोंका उत्पाद होता है, इन्द्रियोंके द्वारा विषय ग्रहण करता है, विषय ग्रहणसे रागादि परिणामोंकी उत्पत्ति होती है फिर रागादिकसे कर्म और कर्मसे गत्यन्तरगमन, फिर गत्यन्तरगमन से देह देहसे इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे विषय ग्रहण, विषयोंसे स्निग्ध परिणाम, स्निग्धपरिणामोंसे कर्म और कर्मसे वही प्रक्रिया इस तरह यह संसार चक्र वरावर चला जाता है। यदि इसकोमिटानाहै तो उक्त प्रक्रियाका अन्त करना पडेगा। इस प्रक्रियाका मूल कारण स्निग्ध परिणाम है। उसका अन्त करनाही इस भवचक्रके विध्वंसका मूल हेतु है । इसको दूर करनेके उपाय बड़े बड़े महात्माओंने बतलाए हैं। आज संसारमै धर्मके जितने आयतन दृष्टिपथ हैं वे इसी चक्रसे वचनेके साधन हैं । किन्तु अन्तरङ्ग इष्टि डालो तो ये सर्व उपाय पराभित हैं। केवल स्वाश्रित उपाय ही