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________________ १६५ इटावा को देख मेरे मनमे विचार आया कि परमार्थसे पीछी-कमण्डलु वही रख सकता है जिसके अन्तरङ्गमें संसारसे भीरुता हो । भीस्ता भी उसीको हो सकती है जो इसे दुःखात्मक समझे । दुःखका कारण परमार्थसे पर नहीं हमारी कल्पना ही है। वह इन पदार्थोमे निजत्व मान दुःखकी जननी बन जाती है। दुःखका कारण रागादिक है। जबलपुरसे श्रीटेकचन्द्रजी और राँचीसे सेठ चाँदमल्लजी साहब भी आये । अव चाँदमल्लजी अपनी इस पर्यायमें नहीं हैं। आपका वोच सुपुष्ट था आप अन्तरङ्गसे विरक्त भी थे आपका आग्रह था कि आप गिरिराज चलें वहाँ पर हमारा भी निवास करनेका अभिप्राय है। मैंने कहा कि इच्छा तो यही है कि गिरिराज पहुँचकर श्रीभगवान् पार्श्वनाथकी शरण लू पर यह शरीर जव इच्छानुकूल प्रवृत्ति करे तव कार्य वने। सागरसे श्री बालचन्द्रजी मलैया, पं० पन्नालालजी तथा दिल्लीसे श्री जैनेन्द्रकिशोरजी सकुटुम्ब आये प्रातःकाल आनन्दसे प्रवचन हुआ। हमारे प्रवचनके अनन्तर श्री चाँदमल्लजी ब्रह्मचारी का व्याख्यान हुआ। व्याख्यान सामयिक था। लोगोंकी दृष्टि सुननेकी ओर तो है पर करनेकी ओर नहीं। करनेसे दूर भागते हैं परन्तु किये विना सुनना और बोलना-दोनों ही कुछ प्रयोजन नहीं रखते। परमार्थ तो यह है कि कपायपूर्वक मन वचन कायका जो व्यापार हो रहा है वह रुक जावे तो कल्याणका पथ सुलस हो जावे । धीरे धीरे शीतकी बाधा कम हो गई और हमारे शरीरमे वातके कारण जो बाधा हो गई थी वह दूर हो गई। यहाँ स्वर्गीय ज्ञानचन्द्र जी गोलालारेकी धर्मपत्नी धनवन्ती देवीने ७५०००) पचहत्तर हजार रुपया जैन पाठशालाके अर्थ प्रदान किया माघ शुक्ल ५ सोमवार दिनांक २३ जनवरी १९५० को उसका मुहूर्त था उद्घाटन मेरे हाथोंसे हुआ। द्वितीय दिन महिला सभाका आयोजन हुआ श्री धनवन्ती देवीने मुख्याध्यक्षाका पद अङ्गीकार किया हम लोग भी
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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