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सहारनपुर-सरसावा जैनोंके हैं। सर्व सम्पन्न हैं। गुरुकुल सहारनपुरको ११०१) प्रदान किया। १०१) वर्णी ग्रन्थमालाको भी दान किया। रात्रिको वागमे शयन किया । वाग बहुत ही रम्य था । आगामी दिन देवबन्द आ गये। अच्छा स्वागत हुआ, मध्याह्नके ३ बजेसे सभाका आयोजन हुआ। मनुष्योंका समारोह अच्छा था, परन्तु बात वही थी कि मानना किसीकी नहीं। आज कल मनुप्योंके यह भाव हो गये हैं कि 'अन्य सिद्धान्तवाले हमारा सिद्धान्त स्वीकृत कर ले।' यह समझमे नहीं आता। प्रत्येक मनुष्य यही चाहता है कि हमारा आत्मा उत्कर्ष पदको प्राप्त करे, किन्तु उत्कर्ष प्राप्त करनेका जो मार्ग है उस पर न चलना पड़े। यही विपरीत भाव हमारे उत्कर्षका बाधक है। हमारा विश्वास तो यह है कि यदि हम अपने सिद्धान्त पर आरूढ़ हो जावें--उसीके अनुसार अपनी सव प्रवृत्ति करने लगें तो अन्य लोग हमारे सिद्धान्तको अच्छी तरह हृदयङ्गम कर लेंगे। हम लोग अपने सिद्धान्तोंको अपने आचरण या प्रवृत्तिसे तो दिखाते नहीं, केवल शब्दों द्वारा आपको बतलानेका प्रयत्न करते हैं परन्तु उसका प्रभाव उनपर नहीं पड़ता। यहाँ मुसलिम समाजका विशाल कालेज है जिसमे उनके उच्चतम ग्रन्थ पढ़ाये जाते हैं, २००० छात्र उसमे शिक्षा पाते हैं। बहुत ही सरल इनका व्यवहार है, वहुत मधुरभाषी हैं। एक मौलवी साहबने उक्त सर्व स्थान दिखलाये। इनके यहाँ वाह्य आडम्बरका बिलकुल अभाव है, भोजन बहुत सादगीका है । यहाँसे चलकर ४ मील पर १ ग्राम था उसमे निवास किया । यहाँ जिसवे स्थानमे ठहरे वह बहुत ही उदार प्रकृतिका था। उसने बड़े सत्कारके साथ रहनेका प्रवन्ध किया । उसी समय ५ पाँच सेर दूध निकाल लाया । जो पीनेवाले थे उन्हें पान कराया। अनन्तर हम लोग कथोपकथन कर सो गये।