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मेरी जीवन गाथा
श्रीसुमेरुचन्द्रजीका त्याग धर्म पर अच्छा रुचिकर व्याख्यान हुंया । बहुंत मनुष्योंने दर्शनकी प्रतिज्ञा ली । दूसरे दिन फुटेसरा पहुँच गये । यह स्थान श्री जीवाराम जी ब्रह्मचारीके जैनधर्म ग्रहण करनेका है। जिनका संसार निकट रह जाता है उन्हें ही जैनधर्म उपलब्ध होता है। जैनधर्मके सिद्धान्त अत्यन्त उदात्त हैं। हृदयका व्यामोह छूट जावे तो यह धर्म सभीको रुचिकर हो जाय, परन्तु इस युगमे यही छूटना कठिन है। श्री समन्तभद्र स्वामीने तो लिखा है
क्लेः प्रभावः कलुषाशयो वा श्रोतु. प्रवक्तुर्वचनानयो वा । त्वच्छासनकाधिपतित्वलन्म्याः प्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः ॥
हे भगवन् ! आपका शासन-धर्म ऐसा है कि उसका समस्त संसारमे एकाधिपत्य होना चाहिये, परन्तु उसमे निम्नाङ्कित वाधक कारण हैं-१ कालिकालका प्रभाव, श्रोताका कलुपित आशय और ३ वक्ताको कथन करने योग्य नयका ज्ञान नहीं होना। यदि यह हुण्डावसपिणी काल नहीं होता, श्रोताका आशय निर्मल होता और वक्ता किस समय कौन बात कहना चाहिये इसका ज्ञान रखता तो आपका शासन समस्त संसारमे एकाधिपत्य रूपसे फैलता । यदि आज कोई अजैन जैन धर्मको स्वीकृत भी करना चाहता है तो वर्तमान जैनियोंका व्यवहार इतना संकीर्णतापूर्ण हो गया कि उसका निर्वाह होना कठिन होता है। किसी एकाकी ब्रह्मचारीका जैनधर्म धारण करना तथा उसका निर्वाह होना दूसरी बात है पर पूरी गृहस्थीके साथ यदि कोई अजैन जैनधर्म धारण करता है तो उसका वर्तमान जैन समाजमे निर्वाह कहाँ है ? वह तो उभयतः भ्रष्ट जैसा हो जाता है। अस्तु, मन्दिरमे दर्शन किये। मन्दिर निर्मल बना हुंआ है । दिनको ३ बजे सभा हुई। श्री क्षुल्लक पूर्णसागरजी तथा क्षुल्लक चिदानन्दजी साहबका प्रवचन हुआ। यहाँ पर २० घर